ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
मालूम नहीं इस साल ही क्या समस्या आ गई अन्यथा चेंज के लिए प्रत्येक वर्ष हिल स्टेशन पर घूमने चले जाते थे। क्या इस बार चेंज के लिए गांव नहीं जाया जा सकता। कितना बड़ा और खुला-खुला घर, हरे-भरे खेत, झरना-तालाब ऊपर से दादी भी खुश....... हनीमून के लिए गांव भी तो जाया जा सकता है। सस्ता सुरक्षित और आन्नदमय अनुभव रहेगा बीवी के साथ।
‘आज आफिस से जल्दी लौट आए क्या?’ पत्नी में कमरे में प्रवेश किया।
‘हाँ, लेकिन तुम कहाँ गई थी?’
मैं शारदा के घर गई थी, दो ब्लाउज कटवाकर लाने थे।
‘तुम्हारे इन ब्लाउजों ने मेरा सारा दिन खराब कर दिया। ‘ये तो रात भी खराब करेंगे?’ शरारत से मुस्कराते हुए पानी का गिलास उसने मेरी ओर बढ़ा दिया। न जाने पत्नी को कैसे पता लगा कि मुझे प्यास लगी है। उसकी शरारत और सेवाभाव देख कर मेरा क्रोध और झुंझलाहट उड़ गयी।
मैंने उसकी बाजू खींजकर अपने पास बिठा लिया।
‘डियर, आज मुझे एक बात सूझी है।’
‘कहिए’
‘इस बार हम चेंज करने लिए अपने गांव चलेंगे।’
‘आप तो कहते थे गांव में मन नहीं लगता।’
श्नहीं नहीं वो दरअसल शहर के प्रति मेरा झूठा आकर्षण है।’
‘मेरा मन तो खुद गांव के हरे भरे खेत देखने का होता है, पहाड़ो पर जाओ, वहाँ पत्थरों के अतिरिक्त क्या है?, लेकिन गांव में हर साल नई-नई फसल खेतों में लहराती है।’
‘तो कल ही चलें, दादी का खत भी आया है।’
‘लेकिन छुट्टियाँ?’
‘जैसे-तैसे ले लूँगा।’
श्नहीं-नहीं जैसे तैसे छुट्टी लेना ठीक नहीं। अगले महीने आफिस में काम भी कम हो जाएगा।’
‘तीन छुट्टियाँ दशहरे पर पड़ रही है। एक और ले लोगे, तो पाँच हो जाएगी........ इस बहाने गांव का दशहरा भी देख लेंगे। इस बारे में दादी जी को खत भी लिख देना, खुश हो जाएंगी।’
‘अरे वाह, तुम्हें हमारे आफिस का बहुत ख्याल है, सचमुच तुम तो बॉस की तरह बातें कर रही हो।’
‘बॉस ही तो हूँ- उसके चेहरे में शरारत छुपी थी।
‘किसकी’
‘अपने डियर हसबैण्ड की’ खिलखिलाती हुई वह भाग जाती है। मुझे लगा मेरी बोझलता उतर गई। एक अच्छे निर्णय से शरीर में नई स्फूर्ति उत्पन्न हो गई।
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