ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
मैं चुप ही रहा था और उसी सायं दादी को गाँव छोड़ आया था। अब मैं समझने लगा हूँ कि दादी को हर मास रूपये की नहीं, उन्हें एक लाठी के सहारे की आवश्यकता है, जो केवल मैं ही बन सकता हूँ परन्तु गांव में जाकर रहा नहीं जा सकता। शहरी जीवन और सुविधाओं में इतना आश्रित हो गया हूँ कि गांव में एक दिन भी गुजारना भारी हो जाता है, फिर क्या किया जाए? मुझे कुछ नहीं सूझता।
सिर भारी हो जाता है। पत्नी न जाने कहाँ चली गई है, मुझे उस पर बड़ा क्रोध आता है। मन होता है, चिल्लाकर माँ से पूछ लूँ लेकिन न जाने फिर क्या कह दे, पहले ही क्रोध में भरी बैठी है, सोचकर मैं किसी को आवाज नहीं लगाता। चाय पीने की इच्छा, कोई उपाय न देखकर स्वयं ही दब जाती है और होंठों में एक सिगरेट दबा लेता हूँ।
पंखे की हवा से मेज पर रखा दादी का खत फड़फड़ाता रहता है। वहां से मेरी नजर दीवार पर उठती हुई दादी के चित्र पर चली जाती है। वही झुर्रियोंदार, सौम्य, आकर्षक तथा शान्त चेहरा। माँ कहती है, दादी ने मुझ पर जादू कर दिया है। जादू क्या होता है! शायद दादी का सिर दर्द होने पर रात देर तक बादाम रोगन की मालिश करते रहना, पिक्चर देखकर आओ तो भी साढ़े बारह बजे तक खाना लिए बैठी रहना, मेरे लिए दूध से मक्खन निकालकर छाछ स्वयं पी लेना, यदि से सब बातें जादू-टोना है तो दादी ने ये सब तो मुझ पर किया है।
मैं भी कितना स्वार्थी हूँ। दादी की बीमारी का खत आया है और मैं अभी तक जाने के लिए बेचैन क्यों नहीं हुआ? बचपन में मुझे कभी हल्का सा ज्वर भी हो जाता था तो दादी गांव के वैद्य-हकीमों के पास कैसे मारी-मारी फिरती थी। खाना-पीना तक भूल जाया करती, रात-रात जागकर मुझे दवाई देती, लेकिन आज मैं कितना बेबस सा इस कमरें की चारदिवारी में कैद हूँ। मुझे अपने पर झुंझलाहट होती है।
मैं इतना विवश क्यूं हूँ? इस बारे मैं सोचता हूँ तो मेरे मन में एक ही जवाब मिलता है कि मैं दादी की तरफ एक ही संबंध पर समर्पित नहीं हो सकता क्योंकि माँ-पिता, बहन-भाई तथा पत्नी का भी मुझ पर अधिकार है। मुझे उनके लिए भी जीना पड़ता है और इसी कारण से मैं सब कुछ छोड़कर उनके पास रहने के लिए नहीं जा सकता।
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