ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
दादी का खत अब भी मेरे हाथ में था। खोल कर मैंने उसे एक ही सांस में पढ़ लिया। पूर्व कल्पना के अनुरूप ही मैंने खत को पाया। घुमा-फिरा कर एक ही बात लिखी थी कि मुझे रूपयों पैसों की ज्यादा जरूरत नहीं है। एक बार मिलने आ जाना।
अब मिलने की फुरस्त कैसे निकाले। नौकरी के अतिरिक्त भी कितना काम करना पड़ता है, तब जाकर इस शहर में सही ढंग से रहा जा सकता है, वैसे भी गाँव में जाकर एक दिन से अधिक समय भी नहीं कटता।
मैं जानता था, माँ और दादी के स्वभाव में बहुत विरोधाभास है, इसलिए दादी को अपनी शादी में तीन दिन पहले ही शहर लाया था। दादी ने दिल खोलकर गहना-कपड़ा बहू को भेंट कर अपना सारा प्यार लुटा दिया। माँ को यह फूटी आँख न सुहाया और शादी से अगले ही दिन दोनों में तू-तू मैं-मैं होने लगी। घर की शान्ति बिखर गई, चेहरे तने-तने रहने लगे, रसोई में बर्तन गिरने की आवाज निरन्तर आने लगी। मुख्य समस्या यह भी थी कि दादी यदि कुछ देर के लिए मेरे पास बैठ जाती थी तो माँ का मुँह सूज जाता, उन्हें लगता दादी मुझे उल्टा-सीधा सिखा रही है और कहीं दादी अमां जी के पास बैठ जाती तो हमेशा लड़कर उठती थी।
दो दिन की तनातनी के बाद दादी ने स्वयं ही कह दिया कि मुझे गाँव में छोड़ आए। झगड़े में पिता जी हमेशा माँ की सुनते थे और उसी पर एक पक्षीय निर्णय लेकर दादी को बुरा भला कहने लगते। दादी अन्दर ही अन्दर रोती रहती।
उस दिन पिता जी की बातें सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा था। माँ का पक्ष लेते हुए वे दादी से बोले- ‘माल तो दे अपने पीहर वालों को और छाती पीटे हमारी, हमसे नहीं उठाए जाते रोज-रोज के नखरे।’
‘अरे नपूते, तुझे पाला-पोसा तेरे लड़के को पढ़ाया-लिखाया, तेरी बहू के जापे निकलवाए और आज मैं तेरी छाती पीटने वाली बन गई। यो छोरा नहीं माना नहीं तो मैं यहाँ कभी न आती।" कहती कहती दादी रोने लगी।
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