ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
समय कटता नहीं था। मानो इन्द्र ने जाने कितने युग हुए चला गया है - और लौट नहीं रहा है।
ऐसा मालूम हुआ मानो किसी मनुष्य की आवाज सुनी हो। जनेऊ को अंगूठे में सैकड़ों बार लपेटकर मुख नीचा करके कान खड़े करके सुनने लगा। गले की आवाज क्रमश: अधिक साफ होने लगी, अच्छी तरह मालूम पड़ने लगा कि दो-तीन आदमी बातचीत करते हुए इसी तरह आ रहे हैं। उनमें से एक तो इन्द्र है और बाकी दो हिंदुस्तानी। वे हों चाहे जो, किन्तु उनके मुख की ओर देखने के पूर्व मैंने यह अच्छी तरह देख लिया कि चाँदनी में उनकी छाया जमीन पर पड़ी है या नहीं! क्योंकि इस अवि-संवादी सत्य को मैं छुटपन से ही अच्छी तरह जानता था कि 'उन लोगों' (भूतों) की छाया नहीं पड़ती!”
आ:, यह तो छाया है! उतनी ही साफ, फिर भी छाया है! संसार में उस दिन किसी भी आदमी ने और किसी वस्तु को देखकर, क्या मेरे जैसी तृप्ति पाई होगी? पाई हो या न पाई हो, परन्तु यह बात तो मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि दृष्टि का चरम आनन्द जिसे कहते हैं, वह यही था। जो लोग आए उन्होंने असाधारण तेजी से उन बड़े-बड़े मच्छों को नाव में से उठाकर एक जाल जैसे वस्त्र के टुकड़े में बाँध लिया, और उसके बदले में उन्होंने इन्द्र की मुट्ठी में जो कुछ थमा दिया उसने 'खन्' से एक मृदु-मधुर शब्द करके अपना परिचय भी मेरे आगे पूर्णत: गुप्त न रहने दिया।
इन्द्र ने नाव खोल दी; परन्तु बहाव में नहीं छोड़ी। धार के पास-पास, प्रवाह के प्रतिकूल, लग्गी से ठेलते हुए वह धीरे-धीरे अग्रसर होने लगा।
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