ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र बोला, “तनिक ठहर श्रीकांत, मैं थोड़ा-सा घूमकर अभी लौट आऊँगा - तुझे अब कुछ डर नहीं है। इस कगारे के उस पार ही धीवरों के मकान हैं।”
साहस की इतनी परीक्षाएँ पास करने के उपरान्त अन्त में यहाँ आकर फेल हो जाने की मेरी बिल्कुल इच्छा नहीं थी; और खास करके मनुष्य की इस किशोर अवस्था में, जिसके समान महा-विस्मयकारी वस्तु संसार में शायद और कोई नहीं है। एक तो वैसे ही मनुष्य की मानसिक गतिविधि बहुत ही दुर्जेय होती है; और फिर किशोर-किशोरी के मन का भाव तो, मैं समझता हूँ, बिल्कुल ही अज्ञेय है। इसीलिए शायद, श्रीवृन्दावन के उन किशोर-किशोरी की किशोरलीला चिरकाल से ऐसे रहस्य से आच्छादित चली आती है। बुद्धि के द्वारा ग्राह्य न कर सकने के कारण किसी ने उसे कहा, 'अच्छी' किसी ने कहा, 'बुरी'-किसी ने 'नीति' की दुहाई दी, किसी ने 'रुचि' की और किसी ने कोई भी बात न सुनी-वे तर्क-वितर्क के समस्त घेरों का उल्लघंन कर बाहर हो गये। जो बाहर हो गये, वे डूब गये, पागल हो गये; और नाचकर, रोकर, गाकर-एकाकार करके संसार को उन्होंने मानो एक पागलखाना बना छोड़ा। तब, जिन लोगों ने 'बुरी' कहकर गालियाँ दी थीं उन्होंने भी कहा कि - और चाहे जो हो किन्तु, ऐसा रस का झरना और कहीं नहीं है। जिनकी 'रुचि' के साथ इस लीला का मेल नहीं मिलता था उन्होंने भी स्वीकार किया - इस पागलों के दल को छोड़कर हमने ऐसा गान और कहीं नहीं सुना। किन्तु यह घटना जिस आश्रय को लेकर घटित हुई, जो सदा पुरातन है, और साथ ही चिर-नूतन भी - वृन्दावन के वन-वन में होने वाली किशोर-किशोरी की उस सुन्दरतम लीला का अन्त किसने कब खोज पाया है, जिसके निकट वेदान्त तुच्छ है और मुक्ति-फल जिसकी तुलना में बारिश के आगे वारि-बिन्दु के समान क्षुद्र है! न किसी ने खोज पाया है और न कोई कभी खोज पायेगा। इसीलिए तो मैंने कहा कि उस समय मेरी वही किशोर अवस्था थी। भले ही उस समय यौवन का तेज और दृढ़ता न आई हो, परन्तु फिर भी उसका दम्भ तो आकर हाजिर हो गया था! आत्मसम्मान की आकांक्षा तो हृदय में सजग हो गयी थी! उस समय अपने सखा के निकट अपने को कौन डरपोक सिद्ध करना चाहेगा? इसलिए मैंने उसी दम जवाब दिया, “मैं डरूँगा क्यों? अच्छा तो है, जाओ।” इन्द्र ने और दूसरा वाक्य खर्च न किया और वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ अदृश्य हो गया।
|