ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र ने अत्यन्त सहज भाव से उत्तर दिया, “वह, कुछ नहीं-साँप लिपटे हैं; आहट पाकर जल में कूद पड़ते हैं।”
“कुछ नहीं, साँप!” काँपकर मैं नाव के बीच सिकुड़कर बैठ गया। अस्फुट स्वर में पूछा, “कैसे साँप भाई?”
इन्द्र ने कहा, “सब किस्म के साँप हैं!-टोंडा, बोंडा, कौंडियाल, काले आदि। पानी में बहते-बहते आए और झाड़ों में लिपट रहे- कहीं भी तो सूखी जमीन नहीं है, देखते नहीं हो?”
“सो तो देखता हूँ।” भय के मारे मेरे तो पैरों के नख से लेकर सिर के बाल तक खड़े हो गये। परन्तु उस भले मानुस ने भूरक्षेप तक न किया, अपना काम करते-करते ही वह कहने लगा, “किन्तु ये काटते नहीं है। ये खुद ही बेचारे डर के मारे मरे जा रहे हैं, दो-तीन तो मेरे ही शरीर को छूते हुए भाग गये हैं। कई एक तो खूब मोटे हैं, मालूम पड़ता है कि वे टोंडा, बोंडा होंगे। और यदि कदाचित् काट ही खायँ, तो क्या किया जाए, मरना तो एक दिन होगा ही भाई! इसी प्रकार वह और भी कुछ अपने मृदु स्वाभाविक कण्ठ से बोलता रहा, मेरे कानों तक कुछ तो पहुँचा और कुछ नहीं पहुँचा। मैं निर्वाक्, निष्पन्द काठ के समान जड़ होकर एक ही स्थान पर एक ही भाव से बैठा रहा। श्वास छोड़ने में भी मानो भय मालूम होने लगा- 'छप' से कहीं कोई मेरी नाव में ही न आ गिरे।
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