ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
स्कूल के मैदान में बंगाली और मुसलमान छात्रों में फुटबाल-मैच था। संध्या हो रही थी। मगन होकर देख रहा था। आनन्द की सीमा न थी। हठात्-अरे यह क्या! तड़ातड़-तड़ातड़ शब्द और 'मारो साले को, पकड़ो साले को' की पुकार मच गयी। मैं विह्वल-सा हो गया। दो-तीन मिनट,- बस इतने में कहाँ कौन गायब हो गया, निश्चय ही न कर पाया। ठीक तौर से पता लगा तब, जब कि मेरी पीठ पर आकर एक छतरी का पूरा बेंट तड़ाक से टूट गया तथा और भी दो-तीन बेंट सिर और भी दो-तीन बेंट सिर और पीठ पर पड़ने को उद्यत दीखे। देखा, पाँच-सात मुसलमान छोकरों ने मेरे चारों ओर व्यूह-रचना कर ली है और भाग जाने को जरा-सा भी रास्ता नहीं छोड़ा है। और भी एक बेंट,- और भी एक। ठीक इसी समय जो मनुष्य बिजली के वेग से उस व्यूह को भेदता हुआ मेरे आगे आकर खड़ा हो गया, वह था इन्द्रनाथ। रंग उसका काला था। नाक वंशी के समान, कपाल प्रशस्त और सुडौल, मुख पर दो-चार चेचक के दाग। ऊँचाई मेरे बराबर ही थी, किन्तु उम्र मुझसे कुछ अधिक थी। कहने लगा, “कोई डर नहीं है, तुम मेरे पीछे-पीछे बाहर निकल आओ।”
उस लड़के की छाती में जो साहस और करुणा थी, वह दुर्लभ होते हुए भी शायद असाधारण नहीं थी। परन्तु इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि उसके दोनों हाथ असाधारण थे। यही नहीं कि वे बहुत बलिष्ठ थे, वरन् लम्बाई में भी घुटनों तक पहुँचते थे। सिवाय इसके, उसे एक सुविधा यह भी थी कि जो उसे जानता नहीं था उसके मन में यह आशंका भी न हो सकती थी कि विवाद के समय यह भला आदमी अकस्मात् अपना तीन हाथ लम्बा हाथ बाहर निकालकर मेरी नाक पर एकाएक इस अन्दाज का घूँसा मार सकेगा। वह घूँसा क्या था, उसे बाघ का पंजा कहना ही अधिक उपयुक्त होगा।
दो ही मिनट के भीतर मैं उसकी पीठ से सटा हुआ बाहर आ गया; और तब, इन्द्र ने बिना किसी आडम्बर के कहा, “भागो।”
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