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श्रीकान्त
श्रीकान्त
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9719
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आईएसबीएन :9781613014479 |
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
अतएव इन सब बातों को रहने देता हूँ। जो कुछ कहने बैठा हूँ वही कहता हूँ। परन्तु कहने से ही तो कहना नहीं हो जाता। भ्रमण करना एक बात है और उसका वर्णन करना दूसरी बात। जिसके भी दो पैर हैं, वह भ्रमण कर सकता है किन्तु दो हाथ होने से ही तो किसी से लिखा नहीं जा सकता। लिखना तो बड़ा कठिन है। सिवाय इसके, बड़ी भारी मुश्किल यह है कि भगवान ने मेरे भीतर कल्पना-कवित्व की एक बूँद भी नहीं डाली। इन अभागिनी आँखों से जो कुछ दीखता है, ठीक वही देखता हूँ। वृक्ष को ठीक वृक्ष ही देखता हूँ और पहाड़-पर्वतों को पहाड़-पर्वत। जल की ओर देखने से वह जल के सिवाय और कुछ नहीं जान पड़ता। आकाश में बादलों की तरफ आँखें फाड़कर देखते-देखते मेरी गर्दन अवश्य दु:खने लगी है, बादल बादल ही नजर आए हैं, उनमें किसी की निबिड़ केश-राशि तो क्या दीखेगी, कभी बाल का टुकड़ा भी खोजे नहीं मिला। चन्द्रमा की ओर देखते-देखते आँखें पथरा गयी हैं; परन्तु उसमें भी कभी किसी का मुख-उख नजर न आया। इस प्रकार भगवान ने ही जिसकी विडम्बना की हो उसके द्वारा कवित्व-सृष्टि कैसे हो सकती है? यदि हो सकती है तो केवल यही कि वह सच-सच बात सीधी तरह से कह दे। इसलिए मैं यही करूँगा।
किन्तु मैं घुमक्कड़ क्यों हो गया, यह बताने के पहले उस व्यक्ति का कुछ परिचय देना आवश्यक है जिसने जीवन के प्रभात में ही मुझे इस नशे में मत्त कर दिया था। उसका नाम था इन्द्रनाथ। हम दोनों का प्रथम परिचय एक फुटबाल-मैच में हुआ। जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि, बरसों पहले एक दिन वह बड़े सुबह उठकर, घर-बार, जमीन-जायदाद और अपने कुटुम्ब को छोड़कर केवल एक धोती लेकर चला गया और फिर लौटकर नहीं आया। ओह, वह दिन आज किस तरह याद है।
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