ई-पुस्तकें >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
उसी रात्रि को पहले एक इन्स्पेक्टर बनारसीलाल से मिले। फिर जब मैं सो गया तब बनारसीलाल को निकाल कर ले गए। प्रातःकाल पांच बजे के करीब जब बनारसीलाल को पुकारा। पहरे पर जो कैदी था, उससे मालूम हुआ, बनारसीलाल बयान दे चुके। बनारसीलाल के सम्बन्ध में सब मित्रों ने कहा था कि इससे अवश्य धोखा होगा, पर मेरी बुद्धि में कुछ न समाया था। प्रत्येक जानकार ने बनारसीलाल के सम्बन्ध में यही भविष्यवाणी की थी कि वह आपत्ति पड़ने पर अटल न रह सकेगा। इस कारण सब ने उसे किसी प्रकार के गुप्ती कार्य में लेने की मनाही की थी। अब तो जो होना था सो हो ही गया।
थोड़े दिनों बाद जिला कलक्टर मिले। कहने लगे फांसी हो जाएगी। बचना हो तो बयान दे दो। मैंने कुछ उत्तर न दिया। तत्पश्चाचत् खुफिया पुलिस के कप्तातन साहिब मिले, बहुत सी बातें की। कई कागज दिखलाए। मैंने कुछ कुछ अन्दाजा लगाया कि कितनी दूर तक ये लोग पहुंच गये हैं। मैंने कुछ बातें बनाई, ताकि पुलिस का ध्यान दूरी की ओर चला जाये, परन्तु उन्हें तो विश्वपसनीय सूत्र हाथ लग चुका था, वे बनावटी बातों पर क्यों विश्वास करते? अन्त में उन्होंने अपनी यह इच्छा प्रकट की कि यदि मैं बंगाल का सम्बन्ध बताकर कुछ बोलशेविक सम्बंध के विषय में अपना बयान दे दूं, तो वे मुझे थोड़ी सी सजा करा देंगे, और सजा के थोड़े दिनों बाद ही जेल से निकालकर इंग्लैंड भेज देंगे और पन्द्रह हजार रुपये पारितोषिक भी सरकार से दिला देंगे।
मैं मन ही मन में बहुत हंसता था। अन्त में एक दिन फिर मुझ से जेल में मिलने को गुप्तथचर विभाग के कप्तारन साहब आये। मैंने अपनी कोठरी में से निकलने से ही इन्कार कर दिया। वह कोठरी पर आकर बहुत सी बातें करते रहे, अन्त में परेशान होकर चले गए।
शिनाख्तें कराई गईं। पुलिस को जितने आदमी मिल सके उतने आदमी लेकर शिनाख्त कराई। भाग्यवश श्री अईनुद्दीन साहब मुकदमे के मजिस्ट्रेट मुकर्रर हुए, उन्होंने जी भर के पुलिस की मदद की। शिनाख्तों में अभियुक्तोंई को साधारण मजिस्ट्रेटों की भांति भी सुविधाएं न दीं। दिखाने के लिए कागजी कार्रवाई खूब साफ रखी। जबान के बड़े मीठे थे। प्रत्येक अभियुक्तव से बड़े तपाक से मिलते थे। बड़ी मीठी मीठी बातें करते थे। सब समझते थे कि हमसे सहानुभूति रखते हैं। कोई न समझ सका कि अन्दर ही अन्दर घाव कर रहे हैं। इतना चालाक अफसर शायद ही कोई दूसरा हो। जब तक मुकदमा उनकी अदालत में रहा, किसी को कोई शिकायत का मौका ही न दिया। यदि कभी कोई बात हो भी जाती तो ऐसे ढंग से उसे टालने की कोशिश करते कि किसी को बुरा ही न लगता। बहुधा ऐसा भी हुआ कि खुली अदालत में अभियुक्तों से क्षमा तक मांगने में संकोच न किया। किन्तु कागजी कार्यवाही में इतने होशियार थे कि जो कुछ लिखा सदैव अभियुक्तों के विरुद्ध ! जब मामला सेशन सुपुर्द किया और आज्ञापत्र में युक्तिंयां दी, तब सब की आंखें खुलीं कि कितना गहरा घाव मार दिया।
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