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रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9718
आईएसबीएन :9781613012826

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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा


नोट बनाना

 

इसी बीच मेरे एक मित्र की एक नोट बनाने वाले महाशय से भेंट हुई। उन्होंने बड़ी बड़ी आशाएँ बांधी। बड़ी लम्बी-लम्बी स्कीम बांधने के पश्चा त् मुझ से कहा कि एक नोट बनाने वाले से भेंट हुई है। बड़ा दक्ष पुरुष है। मुझे भी बना हुआ नोट देखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी। मैंने उन सज्जन के दर्शन की इच्छा प्रकट की। जब उक्तछ नोट बनाने वाले महाशय मुझे मिले तो बड़ी कौतूहलोत्पादक बातें की। मैंने कहा कि मैं स्थान तथा आर्थिक सहायता दूंगा, नोट बनाओ। जिस प्रकार उन्होंने मुझ से कहा, मैंने सब प्रबन्ध कर दिया, किन्तु मैंने कह दिया था कि नोट बनाते समय मैं वहाँ उपस्थित रहूँगा, मुझे बताना कुछ मत, पर मैं नोट बनाने की रीति अवश्य देखना चाहता हूँ। पहले-पहल उन्होंने दस रुपए का नोट बनाने का निश्च य किया। मुझसे एक दस रुपये का नया साफ नोट मंगाया। नौ रुपये दवा खरीदने के बहाने से ले गए। रात्रि में नोट बनाने का प्रबन्ध हुआ। दो शीशे लाए। कुछ कागज भी लाए। दो तीन शीशियों में कुछ दवाई थी। दवाइयों को मिलाकर एक प्लेट में सादे कागज पानी में भिगोए। मैं जो साफ नोट लाया था, उस पर एक सादा कागज लगाकर दोनों को दूसरी दवा डालकर धोया। फिर दो सादे कागजों में लपेट एक पुड़िया सी बनाई और अपने एक साथी को दी कि उसे आग पर गरम कर लाए। आग वहां से कुछ दूर पर जलती थी। कुछ समय तक वह आग पर गरम करता रहा और पुड़िया लाकर वापस दे दी। नोट बनाने वाले ने पुड़िया खोलकर दोनों शीशों को दवा में धोया और फीते से शीशों को बांधकर रख दिया और कहा कि दो घण्टे में नोट बन जाएगा। शीशे रख दिये। बातचीत होने लगी। कहने लगा, 'इस प्रयोग में बड़ा व्यय होता है। छोटे मोटे नोट बनाने में कोई लाभ नहीं। बड़े नोट बनाने चाहियें, जिससे पर्याप्त  धन की प्राप्ति  हो।' इस प्रकार मुझे भी सिखा देने का वचन दिया। मुझे कुछ कार्य था। मैं जाने लगा तो वह भी चला गया। दो घण्टे के बाद आने का निश्चंय हुआ।

मैं विचारने लगा कि किस प्रकार एक नोट के ऊपर दूसरा सादा कागज रखने से नोट बन जाएगा। मैंने प्रेस का काम सीखा था। थोड़ी बहुत फोटोग्राफी भी जानता था। साइन्स (विज्ञान) का भी अध्ययन किया था। कुछ समझ में न आया कि नोट सीधा कैसे छपेगा। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि नम्बर कैसे छपेंगे। मुझे बड़ा भारी सन्देह हुआ। दो घण्टे बाद मैं जब गया तो रिवाल्वर भरकर जेब में डालकर ले गया। यथासमय वह महाशय आये। उन्होंने शीशे खोलकर कागज खोले। एक मेरा लाया हुआ नोट और दूसरा एक दस रुपये का नोट उसी के ऊपर से उतारकर सुखाया। कहा - 'कितना साफ नोट है !' मैंने हाथ में लेकर देखा। दोनों नोटों के नम्बर मिलाये। नम्बर नितान्त भिन्न-भिन्न थे। मैंने जेब से रिवाल्वर निकाल नोट बनाने वाले महाशय की छाती पर रख कर कहा 'बदमाश ! इस तरह ठगता फिरता है?'

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