ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
दूसरे दिन वह मामो जाने के लिए ट्रेन में जा बैठा। साथ में एक अर्दली और ऑफिस का एक हिंदुस्तानी ब्राह्मण भी था। तिवारी डेरे पर ही रहा। लंगड़ा साहब अस्पताल में पड़ा है, इसलिए अब उतना भय नहीं है। तलवलकर ने तिवारी की पीठ ठोककर कहा, “चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कभी कोई घटना हो तो मुझे खबर देना।”
ट्रेन छूटने में लगभग पांच मिनट की देर होगी कि सहसा अपूर्व चौंककर बोल उठा, “वही तो।”
तलवलकर गर्दन फेरते ही समझ गया कि वही गिरीश महापात्र है। वही ठाटबाट वाला बांहदार कुर्ता, हरे रंग के मोजे, वही पम्प शू और घड़ी। अंतर केवल इतना ही है कि इस बार वह बाघ अंकित रूमाल, छाती की जेब के बजाय गले में लिपटा हुआ है। महापात्र इसी ओर आ रहा था। निकट आते ही अपूर्व ने पुकारकर कहा, “क्यों गिरीश, मुझे पहचान सकते हो? कहां जा रहे हो?”
“जी हां, पहचान रहा हूं। कहां के लिए प्रस्थान हो रहा है?”
“इस समय तो मामो जा रहा हूं। तुम कहां चल रहे हो?”
गिरीश ने कहा, “जी, एनाज से दो मित्रों के आने की बात थी, लेकिन बाबूजी, मुझे लोग झूठ-मूठ तंग करते हैं। हां, यह अवश्य है कि लोग अफीम और गांजा छिपाकर ले आते हैं, लेकिन बाबू, मैं तो बहुत ही धर्मभीरु आदमी हूं। लेकिन कहावत है न-ललाट की लिखावट मेटी नहीं जा सकती।”
अपूर्व ने हंसते हुए कहा, “मुझे भी ऐसा विश्वास है। लेकिन तुम गलत समझ रहे हो भाई। मैं पुलिस का आदमी नहीं हूं। अफीम-गांजे से मेरा कोई मतलब नहीं है। उस दिन तो मैं केवल तमाशा देखने गया था।”
तलवलकर बोला, “बाबू! मैंने अवश्य ही कहीं देखा है।”
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