ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
तिवारी ने कहा, “अच्छा।” लेकिन उसने एक लम्बी सांस दबा रखने की जो कोशिश की उसे अपूर्व ने देख लिया। बाहर जाते समय तिवारी ने भारी गले से कहा, “पैदल मत जाना छोटे बाबू! किराए की गाड़ी ले लेना।”
“अच्छा,” कहकर अपूर्व नीचे उतर गया। उसके चलने का ढंग ऐसा था, जैसे नई नौकरी के प्रति उसके मन में कोई हर्ष न हो।
वोथा कम्पनी के भागीदार पूर्वीय क्षेत्र के मैनेजर रोजेन साहब उस समय बर्मा में ही थे। रंगून कार्यालय उन्होंने ही स्थापित किया था। उन्होंने अपूर्व का बड़े आदर से स्वागत किया। उसके स्वरूप, बातचीत तथा यूनिवर्सिटी की डिग्री देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। सभी कर्मचारियों को बुलाकर परिचय कराया और दो-तीन महीने में व्यवसाय का सम्पूर्ण रहस्य सिखा देने का आश्वासन दिया। बातचीत, परिचय तथा नए उत्साह से उसकी मानसिक ग्लानि कुछ समय के लिए मिट गई। एक व्यक्ति ने उसे विशेष रूप से आकर्षित किया। वह था ऑफिस का एकाउन्टेन्ट। ब्राह्मण है। नाम है रामदास तलवलकर। आयु लगभग उसके जितनी ही या कुछ अधिक हो सकती है। दीर्घ आकृति, बलिष्ठ, गौरवर्ण है। पहनावे में पाजामा, लम्बा कोट, सिर पर पगड़ी, माथे पर लाल चंदन का टीका। बड़ी अच्छी अंग्रेजी में बातचीत करते हैं, लेकिन अपूर्व के साथ उन्होंने पहले से ही हिंदी में बोलना आरम्भ कर दिया। अपूर्व हिंदी अच्छी तरह नहीं जानता। लेकिन जब देखा कि वह हिंदी छोड़कर और किसी में उत्तर नहीं देता तो उसने भी हिंदी बोलना आरम्भ कर दिया। अपूर्व ने कहा, “यह भाषा मैं नहीं जानता। बोलने में बहुत गलतियां होती हैं।”
रामदास बोला, “गलतियां तो मुझसे भी होती हैं। क्योंकि यह मेरी भी मातृभाषा नहीं है।”
अपूर्व बोला, “अगर पराई भाषा में ही बातचीत करनी है तो अंग्रेजी में क्या दोष है?”
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