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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व विस्मय के मारे स्तब्ध हो गया। साहब ने कहा-”संयोग से दरवाजा खुला होता तो तुम कमरे में घुसकर मेरी पत्नी या बेटी पर आक्रमण कर बैठते। इसीलिए मेरे जागते रहने पर नहीं गए?”

अपूर्व ने धीमे स्वर से कहा, “आप तो सो रहे थे, कैसे पता चला?”

साहब ने कहा, “मेरी लड़की ने मुझे बताया है। उसे तुमने गाली भी दी।”

इतना कहकर उसने बगल में खड़ी लड़की की ओर उंगली से इशारा किया, यह वही लड़की है। कल भी इसे अपूर्व अच्छी तरह नहीं देख पाया था। आज भी साहब के विशाल शरीर की आड़ में उसकी साड़ी की किनारी को छोड़ और कुछ भी नहीं देख पाया। सिर हिलाकर उसने पिता की हां-में-हां मिलाई या नहीं, यह भी समझ में नहीं आया। लेकिन इतना अवश्य समझ गया कि यह लोग भले आदमी नहीं हैं। सारे मामले को जान-बूझकर विकृत और उलटा करके सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए बहुत सतर्क रहने की जरूरत है।

साहब ने कहा, “मैं जाग रहा होता तो तुम्हें लात मारकर धकेल देता। तुम्हारे मुंह में एक भी दांत साबुत न रहने देता। लेकिन यह अवसर अब खो चुका हूं। इसलिए पुलिस के हाथ से जो कुछ न्याय मिलेगा उतना ही लेकर संतुष्ट होना पड़ेगा। हम लोग जा रहे हैं। तुम इसके लिए तैयार रहना।”

अपूर्व ने सिर हिलाकर कहा, “अच्छी बात है।”-लेकिन उसका मुंह उतर-सा गया।

साहब ने लड़की का हाथ पकड़कर कहा, “चलो!” और सीढ़ी से उतरते-उतरते बोला, “मैंने तो पहले ही कहा था बाबू, कि जो होना था हो गया। अब उन्हें और छेड़ने की जरूरत नहीं है। वह साहब और मेम ठहरे।”

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