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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

स्व को त्याग कर मुक्त चेतना जब शुद्ध आनंद का अनुभव करती है तो वह ईश्वरप्राप्ति होती है। विश्वविख्यात वायलिन वादक यहूदी मेन्यूहिनु का संगीत सुनकर आइंसटीन ने कहा - तुमने मुझे संगीत से ईश्वर में विश्वासी बना दिया - वही संगीत से परम आनंद की अनुभूति है। दुष्ट से दुष्ट आदमी जितनी देर रविशंकर का सितार सुनता है, दुष्टता भूल जाता है, उसके मन में, मैल, द्वेष, शत्रु-भाव नहीं होते।

यह धर्मानुभूति स्व के त्याग से ऊँचे स्तर की है। यह ऐसी धर्मानुभूति नहीं है - सुबह भगवान की पूजा की, एक सौ ग्यारह नंबर का तिलक लगाया, दुकान गए और दिन भर आदमियों को लूटा।

सत्य की खोज धर्म और विज्ञान दोनों का लक्ष्य है। इरैस्मक ने कहा है- जहाँ-कहीं तुम्हारा सत्य से सामना हो उसे ईसाइयत मानो।

यह भी कह सकते हैं - जहाँ-जहाँ सत्य से तुम्हारा सामना हो, उसे वैष्णव धर्म मानो या जहाँ-जहाँ तुम्हारा सत्य से सामना हो, उसे इस्लाम मानो। बहुत से साधक चिंतक सत्य को ही ईश्वर मानते हैं।

वैज्ञानिक मानते हैं कि सत्य यदि ईश्वर है, तो प्रयोगों से हम उसी की खोज कर रहे हैं। परंतु यह सब-धर्म की साधना और विज्ञान की खोज का एक ही उद्देश्य है - मनुष्य का उदात्तीकरण, उसकी ऊर्ध्वगति, मनुष्य का मंगल। आखिर धर्म और विज्ञान का सत्य किसके लिए? कवि चंडीदास ने कहा है - शुन हे मानुष भाई। सबार ऊपर मानुष सत्य तेहार ऊपर नाई। जब धर्म मनुष्य के मंगल के ऊँचे पद से गिराया जाता है तब उसके नाम से निहित स्वार्थी अधर्मी दंगा कराकर मनुष्यों की हत्या कराते हैं। और जब विज्ञान को उसके ऊँचे लक्ष्य से स्वार्थी साम्राज्यवादी उतारते हैं तो हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिरते हैं और लाखों मनुष्य मारे जाते हैं। वह मनुष्य ही है जो धर्म और विज्ञान का सही या गलत प्रयोग करता है वरना धर्म पोथी में है और विज्ञान प्रयोगशाला में। ईश्वर को रामकृष्ण परमहंस ने सार्वभौमिक सत्य, विवेक और प्रेम माना है।

विज्ञानों में सत्य का शोध तो होता ही है। वैज्ञानिकों में विवेक और प्रेम हो सकता है। विज्ञान निरपेक्ष होता है। इसलिए धर्म का कहना है कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को बहिर्मुखी बनाती हैं। अपने अंतर में देखो। अपनी आत्मा में उतरो। वहाँ क्या मिलेगा? संवेदना, प्रेम, करुणा, दया। इस वाह्य और अंतर का जब मेल होगा, तब धर्म अवैज्ञानिक नहीं होगा और विज्ञान संवेदनहीन नहीं होगा।

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