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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।


धर्म, विज्ञान और सामाजिक हलचल


अपनी दुनिया और संपूर्ण सृष्टि की व्याख्या और समझ सबसे पहले धर्म ने दी, विज्ञान ने नहीं। या यों कहें कि धर्म पहला विज्ञान है। बाद में विज्ञानों ने जब दूसरी व्याख्याएँ की, दूसरे कार्य-कारण बताए, दूसरे अर्थ समझा दिए, तब धर्म ने इन सबको नामंजूर कर दिया। इस तरह धर्म ने विज्ञान को नकारा ही नहीं, वैज्ञानिकों को ज्ञान देने के लिए सजा भी दी - बूनो और गेलीलियो इसके उदाहरण हैं। इससे भी पहले धर्म की आदिम अतार्किक धारणाओं को जब सुकरात ने तर्कों से गलत सिद्ध किया, तब उन्हें जहर का प्याला पीना पड़ा। धर्म और विज्ञान की पटरी कभी नहीं बैठी। कुछ साल पहले जब अमेरिकी 'स्काई लैब' गिरने की सूचना दी गई, तो हमारे देश में उससे बचने के लिए भजन-कीर्तन रात भर होते रहे।

मगर धर्म और विज्ञान का वैसा संघर्ष नहीं है, जैसा लोग समझते हैं। मेरा मतलब धर्म के मूल तत्त्वों से है। कर्म-कांडों, अंध-विश्वासों, भाग्यवाद, सांप्रदायिक विद्वेष, जड़-वाद, गलत रूढ़ियाँ, सड़ी-गली परंपराओं तर्कहीनता, प्रमाणहीनता जो धर्म के नाम पर ही चलती हैं, को विज्ञान अस्वीकार करता है और उनका विरोधी है। मगर मूल तत्त्व से विज्ञान का विरोध नहीं है। महान वैज्ञानिक आइंसटीन वैसे नास्तिक थे पर उन्होंने लिखा है- 'वैज्ञानिक की धर्म-भावना प्राकृतिक नियमों की एकता और सुसंगति को देखकर आनंदातिरेक जनित विस्मय के रूप में प्रकट होती है। प्राकृतिक नियमों की इस एकता में जिस श्रेष्ठ बुद्धि-वैभव के दर्शन होते हैं, उनकी तुलना में मानव-जाति की समस्त व्यवस्थित चिंतन और क्रिया नितांत महत्त्वहीन बौद्धिक शक्ति जान पड़ती है। मनुष्य को जहाँ तर्क स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के बंधनों से अपने को मुक्त रखने में सफलता मिल पाती है, वहाँ तक परभावना उसके जीवन और कार्य का निर्देशक-सिद्धांत बनती है। निर्विवाद रूप से यह युगों की धार्मिक प्रतिमाओं को प्रभावित करने की चेतना से मिलती-जुलती भावना है।'

आइंसटीन ने ऊपर दो महत्वपूर्ण बातें कही हैं - एक तो परम आनंद की उपलब्धि और दूसरे स्वभावना त्याग कर परभावना को ग्रहण करना। अब इनकी धार्मिक मान्यताओं से तुलना कीजिए। ब्रह्म चिंतन में ब्रह्म को 'प्रज्ञानंदम ब्रह्म' कहा है - प्रज्ञा के साथ आनंद और स्व को त्यागकर पर को ग्रहण करने की बात तुलसीदास ने सरलता से कह दी है-

परहित सरिस धरम नहिं भाई,

पर पीड़ा  सम  नहिं अधमाई।

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