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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

सन् 1975-76 में 'फासिस्टवाद' विरोधी सम्मेलन बहुत हुए। आयोजन का काम तो कांग्रेसी ही करते थे, पर भाषण के लिए मुझ जैसे लोगों को बुलाते थे। मैंने कई सम्मेलनों में फासिस्टवाद समझाया और उसके खतरे बताए। मगर आज जो हो रहा है, उसे देखकर सिर ठोंकता हूँ। एक सम्मेलन के उद्घाटन में एक राज्य के मंत्री बोले - हमें फासिस्टवाद को बढ़ाना है। फासिस्टवाद से ही देश का कल्याण है। आदि-आदि। हम सब परेशान थे। वे उलटा बोल रहे थे। उन्हें समझ में ही नहीं आता था। एक और सम्मेलन के वक्त दो जिला कांग्रेस के अध्यक्ष मुझसे पूछने लगे - परसाई जी, यह फासिस्टवाद होता क्या है। जरा समझाइए। जरा बताइए। उन्हें समझाने का वक्त नहीं था और फायदा भी नहीं था। मैंने कहा - आप फासिस्टवाद समझने की परेशानी में क्यों पड़ते हैं। यह परेशानी तो हमारी है। आप तो रोज सबेरे इंदिरा गाँधी का वक्तव्य अखबार में पढ़ लीजिए और उसके मुताबिक बोलिए और करिए। आप क्यों समझने की झंझट में पड़ते हैं।

हमारे यहाँ उद्घाटन करने और कराने की एक मजबूत परंपरा पड़ गई। और यह काम किसी मंत्री के मुखारविंद या कर-कमल से ही कराया जाता है। राजनैतिक सम्मेलन तो ठीक है। पर डाक्टरों का सम्मेलन, शिक्षा शास्त्रियों का सम्मेलन आदि में भी उस विषय के किसी प्रसिद्ध विद्वान को न बुलाकर मंत्री को बुलाते हैं। और मंत्रियों में भी इतनी शालीनता नहीं है कि कह दें कि मैं इस विषय पर विशेषज्ञ नहीं हूँ। किसी विशेषज्ञ से यह काम कराइए। किसी विशेषज्ञ को सम्मान दीजिए। मैं यह नहीं कहता कि सारे मंत्री नेता बुद्धिहीन होते हैं। बहुतेरे परम बुद्धिमान भी होते हैं। प्रसिद्ध नेता और केंद्रीय मंत्री बाबू जगजीवनराम ने विदिशा में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में डेढ़ घंटे भाषाशास्त्र पर बहुत अच्छा भाषण दिया। वह आपातकाल था। हर नेता के मुख से इंदिरा गाँधी, दस सूत्री कार्यक्रम, फसिस्टवाद, शब्द हर मौके पर निकलते थे। पर जगजीवनराम ने इनका नाम नहीं लिया।

मुझे लगता है कि इस देश की खुशहाली किसी के कर कमलों से उद्घाटन की राह देख रही है। उद्घाटन एक शुभ-अनुष्ठान की जगह अशुभ रोग हो गया है। अशुभ रोग इस कारण कहा कि ऐसा होने लगा है कि उद्घाटन के बाद पुल में दरार पैदा होने और गरीब कालोनी के उद्घाटन के बाद मकान गिरने की घटनाएँ होने लगीं हैं।

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