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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

कौन हलचल, बेचैनी यथास्थिति को तोड़नेवाली और कल्याणकारी है यह पहचानना होता है। बेचैनी, हलचल, उन्माद कोई स्वार्थी सत्ता के इच्छुक-या पागल भी इतने पैदा कर सकते हैं कि पूरी जाति एक पागल के पीछे चलकर दुनिया का और अपना खुद का बहुत नाश करती है। एडोल्फ हिटलर ने जर्मन आर्य नस्लवाद का एक झूठा सिद्धांत देकर जर्मन जाति को अहंकारी, उन्मादी, आक्रामक और कूर बना दिया था। दूसरे महायुद्ध का कारण हिटलर की गलत सोच, महत्त्वाकांक्षा और सनकीपन थे। पर उसमें जाति को उन्मादग्रस्त करने की अद्भुत क्षमता थी। भिन्न प्रकार का व्यक्तित्व ईरान के नेता अयातुल्ला खुमैनी का था। ईरानी लोग तंग थे शाह के अत्याचारों से। पर शाह ने ईरानियों को आधुनिक बनाया था। अयातुल्ला ने इस्लामी क्रांति का आह्वान किया। इसमें शिया उन्माद और मजहबी बुनियादपरस्ती थी। गजब की शक्ति थी इस वृद्ध के शब्दों में। वह ईरानियों की सोच को सातवीं सदी पर लौटा लाया। एक नतीजा अच्छा यह हुआ कि शाह भाग गया। पर इसके बाद ईरान में वास्तविक लोकतंत्र नहीं आया। ऐसी सरकार रही अयातुल्ला की मृत्यु तक जिस पर कट्टर बुनियादपरस्त मुल्ला मौलवियों का कब्जा। इस सरकार ने बहुत लोगों की हत्या की, बहुत अत्याचार किया। 'फतवा' खौफनाक शब्द हो गया। उन्मादी शिया युवकों के दस्ते चाहे जहाँ मारकाट करते। ईद पर मक्का में खून बहाया। अयातुल्ला की मृत्यु के बाद जब रफसंजानी सत्ता में आए, तब यह उन्माद धीरे-धीरे घटना शुरू हुआ। अब ईरानी समाज सामान्यता की ओर बढ़ रहा है। एक हलचल, एक बेचैनी को ऐसा भी मोड़ दिया जा सकता है जिसके कई सालों तक भयावह परिणाम निकलते हैं।

बुनियादपरस्ती के इस उन्माद ने कई समाजों पर प्रभाव डाला है। अचरज इस बात का है कि सत्तर साल तक समाजवादी व्यवस्था में रहे, सोवियत रूस के एशियाई मुस्लिम राष्ट्र एकदम बुनियादपरस्त हो गए हैं। इनके निकट वे देश हैं जो कट्टरता, और बुनियादपरस्ती के प्रभाव में हैं। जो आधुनिक हो गए थे वे सातवीं-आठवीं सदी के जीवन पर जाना चाहते हें। जड़ को खोजने में कोई हर्ज नहीं। पर अब जब पेड़ हो गए हैं, तब फिर जड़ होने की कोशिश करने के क्या नतीजे निकलेंगे? एक तो यह संभव नहीं है। इससे सिर्फ मानसिकता जड़ होगी। कबीलाई जिंदगी अब नहीं जी सकते।

पर दुनिया की हलचलों में इस समय धर्म के नाम पर सबसे अधिक संगठित उन्माद है। कई सशस्त्र उन्मादी संगठन बन गए हैं। जो छापामारी करते हैं। राजनीतिक शक्ति इन्हें दो तरह से पकड़ती और इनका इस्तेमाल करती है। दूसरे धर्म की प्रतिद्वंद्विता में संगठन बनता है और तरकीब से राजनैतिक शक्ति उसे पकड़ लेती है। या राजनैतिक शक्ति पहल करके धर्म के नाम पर ऐसे संगठन बनाती है। और उनका उपयोग करती है। सैकड़ों संगठन इस प्रकार के होंगे जो दुनियों भर में खून-खराबा करते हैं। किसी राजनीति के आदेश पर या उनके अपने संकीर्ण उद्देश्य होते हैं। भारत में भी हैं।

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