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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

यही संविद प्रयोग 1977 में फिर हुआ। यह जयप्रकाश नारायण की 'संपूर्ण क्राति' (या भ्राँति) का नतीजा था। गैर संवैधानिक तरीके से सरकार गिराने का प्रयास थी यह क्रांति। कोई क्रांतिकारी आर्थिक कार्यक्रम नहीं था। अराजकता पैदा करने की कोशिश थी। बाद में जार्ज फर्नांडीस ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि मैंने इतने बार रेल पटरी से उतारी। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया था। जयप्रकाश घोर साम्यवाद विरोधी और रूस विरोधी थे। वे अमेरिका समर्थक हो गए थे। वे अमेरिकापरस्त विदेश नीति चाहते थे। उनकी जेल की डायरी में सब साफ-साफ लिखा है। क्रांति के नाम पर जनेऊ तोड़ो आंदोलन।

जेल से छूटकर पाँच धड़ों को मिलाकर जनता पार्टी बनी। वह चुनाव जीती और जनता सरकार केंद्र में तथा अधिकांश राज्यों में बनी। क्या हुआ? कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम लागू किया गया? नहीं। बेकारी की समस्या का हल? नहीं। ये दक्षिणपंथी पार्टियाँ थी, जिनके पास क्रांतिकारी कार्यक्रम हो ही नहीं सकता। हाँ, इनकी सबसे बड़ी क्रांतिकारिता आपस में लड़ने में दिखी। पद और स्वार्थ की लड़ाई। पौने तीन साल में यह क्रांतिकारी सरकार गिर गई। 1980 में इदिरा गाँधी फिर सत्तारूढ। बनेगा तो वही बनेगा, 1977 का जोड़तोड़। इसमें सिद्धांतों की जरूरत भी नहीं है। सिद्धांतों की धमकी से हम डरते भी नही हैं। कई सालों से सिद्धांत भोग रहे हैं। जमाव जमाओ सीट पक्की करो, और जीतने की हालत में मंत्रिमंडल मंह अपनी जगह पक्की करो।


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