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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

इस चावल सिद्धांत, वेश, चैतन्य रथ और नाटकबाजी से बने मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव कोई सिद्धांत मान भी नहीं सकते। देवीलाल का भी कोई सिद्धांत नहीं है। चंद्रशेखर कभी कांग्रेस में युवा तुर्क थे। वे समाजवादी थे। अब क्या हो गए हैं? बहुगुणा की छवि वामपंथी की रही है। पिछले सालों से वे न जाने क्या हैं। पदलिप्सा को त्यागने  घोषणा करनेवालों का हाल यह है कि पदों के लिए पार्टियाँ टूट रही हैं मगर बहुगुणा और चंद्रशेखर विश्वनाथ को नेता नहीं मानते, तो विश्वनाथ ने भी इनसे कुछ जवाब माँगे और समाजवादी दल में शामिल होने के  शर्तें रखीं। अब सिद्धांत की जरूरत ही क्या? मगर घोषणाएँ हो रही हैं कि गड़बड़ की तो हम सिद्धांत की राजनीति करने लगेंगे।

मेरे मत से सिद्धांत खोजने की जरूरत नहीं है। कोई सिद्धांत मानने की भी जरूरत नहीं है। इस देश में दो सिद्धांत पहले से ही हैं और समाजवाद। गाँधीवाद गाँधीयुग से चला आ रहा है। समाजवाद नेहरु युग से। समाजवाद वह टोपी है जो हर सिर पर फिट बैठती है। गाँधीवाद का कोई मतलब नहीं रहा इस देश में। गाँधीवाद और समाजवाद दोनों अर्थहीन, मगर जरूरी सिद्धांत हो गए हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने भी दोनों स्वीकार कर लिए। कुछ चाहिए, दिखाने के लिए। भारतीय जनता पार्टी जिस संगठन का राजनैतिक मोर्चा है वह गाँधी और समाजवाद दोनों का विरोधी है। मगर न गाँधी कुछ बिगाड़ते न समाजवाद। तो क्यों न उन्हें ले लिया जाय। चाहे जैसा इन्हें मोड़ सकते हैं। ये कुछ माँग नहीं करते। आप बूचड़खाना खोलकर भी गाँधीवादी रह सकते हैं। और बँधुआ मजदूर रखकर भी अच्छे समाजवादी बने रह सकते हैं। गाँधी इस देश से गए। बाहर हैं। गोर्बाच्योव गाँधी का नाम लेते हैं और अहिंसा को अंतर्राष्ट्रीय आचरण का आधार बताते हैं। भारत के गाँधीवादी गाँधी जयंती मनाते हैं और पुरानी पीढ़ी के कांग्रेसी चरखा कातने का शो करते हैं। गाँधीवाद यहाँ इतना ही है कि चाहे जब सवर्ण हरिजनों को गोली से उड़ा देते हैं। रघुपति राघव राजाराम, सबको दुर्मति दे भगवान।

पंडित नेहरू के बाद यह पहचानना कठिन है कि समाजवाद कहाँ है, और किस तरह का है। पंडित नेहरू समाजवाद को लोकप्रिय तो कर गए लेकिन सारी ताकत के बावजूद कांग्रेस से सहकारी खेती मंजूर नहीं करवा पाए। उनके स्थापित किए सार्वजनिक उद्योग क्षेत्र का क्षय होता गया। मगर समाजवाद का नाम है। उसके नाम से पूँजीवाद और सामंतवाद खूब बढ़ रहे हैं। इतने सुभीते का समाजवाद दुनिया के किसी देश में नहीं है। ऐसे समाजवाद के होते हुए नए सिद्धांत खोजने की क्या जरूरत है?

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