ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता ने कहा- रुपये ले रही हूँ।
शेखर केवल एक बार 'हूँ' कहकर फिर वैसे ही पढ़ता रहा। ललिता आँचल में रुपये बाँधकर उठ खड़ी हुई। आज वह सज-धजकर आई थी। उसकी इच्छा थी कि शेखर एक बार उसकी ओर देखे। उसने फिर कहा- दस रुपये लिये है शेखर दादा।
शेखर ने कहा-- अच्छा। लेकिन फिर भी उसने ललिता की ओर नहीं देखा। कोई उपाय न देखकर ललिता बह-वह चीज उठाने-धरने लगी, व्यर्थ ही देर करने लगी। जब किसी तरह कुछ फल न हुआ तब उठकर धीरे-धीरे चली गई। किन्तु यों चले जाने से ही तो काम नहीं चलने का। उसे फिर लौट आकर किवाडों के पास खड़े धोना पड़ा। आज वह अपनी बहनेली वगैरह के साथ थियेटर देखने जायगी। ललिता जानती थी कि शेखर की आज्ञा पाये बिना उसका जाना कहीं नहीं हो सकता। किसी ने ललिता से यह वात कह नहीं दी थी। शेखर की आज्ञा लेने की क्यों आवश्यकता है- यह तर्क भी किसी दिन ललिता के मन में नहीं उठा। बात यह थी कि जीवमात्र के जो एक स्वाभाविक सहज-बुद्धि होती है उसी बुद्धि ने ललिता को सिखा दिया था कि शेखर की आशा उसके लिए माननीय है। उसकी यह सहज धारणा थी कि और सब लोग अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जो कर सकते हैं, जहाँ चाहे तहाँ जा सकते हैं, किन्तु मैं वैसा नहीं कर सकती। वह खूब समझती थी कि मैं स्वाधीन नहीं हूँ, और केवल मामा-मामी की अनुमति ही मेरे लिए यथेष्ट नहीं।
ललिता ने दरवाजे की आड़ में खडे़ होकर धीमी आवाज में कहा- हम लोग थियेटर देखने जाते हैं।
ललिता की धीमी आवाज शेखर के कानों तक न पहुँची, इससे उसने कुछ उत्तर भी नहीं दिया।
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