ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता पहले भुवनेश्वरी को मौसी कहती थी। मगर भुवनेश्वरी ने उसे मना कर दिया। कहा- मैं तेरी मौसी तो नहीं हूँ, माँ बेशक हूँ। तब से ललिता उन्हें कभी माँ और कभी अम्मा कहती थी। भुवनेश्वरी ने ललिता को प्यार के ढँग से और भी छाती के पास लाकर कहा- कुछ नहीं! तो जान? पड़ता है, सिर्फ मुझे देखने आई है- क्यों न?
ललिता चुप रही।
शेखर ने कहा- तुमको देखने तो आई है माँ, लेकिन इतनी फुरसत कहाँ है? रसोई कब करेगी?
माँ- रसोई क्यों करेगी वह?
शेखर ने आश्चर्य प्रकट करके कहा- तो फिर इन लोगों के खाने के लिए रसोई कौन करेगा माँ? ललिता के मामा ने खुद उस दिन मुझसे कहा था कि ललिता ही अब कुछ दिन भोजन बनावेगी।
सुनकर माँ हँसने लगीं। बोलीं- इसके मामा की बात का कुछ ठीक-ठौर है- जो मुँह में आया, कह दिया। इसका अभी ब्याह नहीं हुआ- इसके हाथ की रसोई कौन खायगा?* मैंने अपने घर के 'महराज' को भेज दिया है, वही वहाँ रसोईं बना रहे होंगे। यहाँ घर की रसोई बड़ी बहू कर लेगी। मैं तो इधर कई दिन से दोपहर को ललिता ही के घर खाती हूँ।
(* बंगाल में क्वांरी लड़की के हाथ की बनी रसोई न खाने की परिपाटी है। पर हमारे प्रान्त में साधारणतया ऐसा कोई नियम नहीं।)
शेखर समझ गया कि उसकी दयामयी माता ने इस दुखिया दरिद्र परिवार का दुःख बँटाने के लिए यह भार अपने ऊपर ले लिया है। वह एक तृप्ति और सन्तोष की सांस लेकर चुप हो रहा। एक महीने के लगभग बीत जाने पर एक दिन शाम हो जाने के बाद शेखर अपने कमरे में कोच के ऊपर करवटियाँ लेटा हुआ कोई अँगरेजी का उपन्यास पढ़ रहा था। अच्छी तरह उसमें मन लग गया था। इसी समय ललिता आकर तकिये के नीचे से चाभी निकालकर खटपट की आवाज करती दराज खोलने लगी। शेखर ने किताब से सिर बिना उठाये ही पूछा- क्या है?
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