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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'कह तो दिया कि नया संसार बसा रही हूँ - गरीबों और बेकारों के पसीने से रत्न निकालने के स्वप्न देख रही हूँ - यह सामान देखती हो - मोटर गाड़ी के पुर्जे बनाने का कारखाना लग रहा है - बम्बई के एक करोड़पति सेठ की साझीदारी में - इस कारखाने का हर मजदूर इस काम में अपनी पत्ती रखता है।' 'तो यह है-विचार' तो बड़े ऊँचे हैं - पर यह पुर्जे बनाने की क्या सूझी - कुछ करना था तो मोटर बनाने का कारखाना लगा लेना था।'

'नहीं बेला, वह तुम्हीं बड़े लोगों को शोभा देता है। हम तो यही बना सकते हैं ताकि जब कभी तुम बड़े लोगों की गाड़ी चलते-चलते रुक जाए तो उसका कोई टूटा-पुराना पुर्जा बदलने को हम गरीब लोग कंधे दे सकें।'

संध्या की यह साधारण सी बात बेला के मन पर जलते अंगारों का काम कर गई। इसके बाद वह कोई और प्रश्न न कर सकी और चुपके से उठकर वहाँ आ बैठी जहाँ संध्या उसके लिए चाय बना रही थी।

बेला चली गई और संध्या बैठी उसके विषय में सोचने लगी - एक नन्ही-सी बच्ची उसी के संग प्यार और स्नेह में बड़ी हुई और आज यह भी न हो पाया कि उसके मन का हाल उससे कह सके। वह बीते जीवन की स्मृति में इतना खो गई कि उसे यह भी ध्यान न रहा कि सामने रखी हुई चाय बर्फ हो रही है।

'चाय ठंडी हो रही है।'

किसी के इस वाक्य ने उसे जगा सा दिया। उसने चौंककर सामने देखा। दरवाजे के पास खड़ा आनंद मुस्कुरा रहा था। थोड़ी देर के लिए तो उसे विश्वास ही न आया कि वह जो कुछ देख रही है क्या यह ठीक है।

उसे आश्चर्य में देखकर आनंद पांव उठाता स्वयं उसके पास आ गया। वह वैसे ही मौन उसे देखती रही - आने वाले अतिथि के स्वागत में उसके मुँह से एक भी शब्द न निकल सका।

'आप' - बड़ी कठिनाई से आखिर उसके होंठों से निकला। वह उठी और अपनी साड़ी का आंचल ठीक करते हुए अपनी घबराहट को उसमें लपेटने लगी।

'कहिए अवकाश मिल गया?'

'तो तुम्हें पता चल गया कि हम आ गए!'

'जी, थोड़ी देर पहले बेला आई थी।'

'बेला! यहाँ आई थी? कब?'

'जैसे आपको कुछ खबर नहीं - यह भी किसी और ने उसे कह दिया होगा कि मैं संध्या से मिलना नहीं चाहता।'

आनंद समझ गया कि बेला ने उसके विषय में यह कह दिया होगा। वह झट उसकी बात छिपाने के लिए मुस्कुराते हुए बोला-

'ओह! इसमें भी कोई भेद था।'

'क्या भेद' संध्या ने उसी गंभीर मुद्रा में पूछा।

'उसके सामने मैं तुमसे खुलकर बात न कर सकता।'

'परंतु यह बात आपको शोभा नहीं देती।'

'क्या?'

'अपनी पत्नी को धोखा देना - आपके एक तनिक से छल ने मुझे तो कहीं का न रखा - अब बेला के जीवन का तो ध्यान रखिए।'

'संध्या...! तुम्हारा भ्रम मैं क्योंकर दूर करूँ - कभी तो सोच-समझ से काम लिया होता - मैं इतना बुरा नहीं जितना तुमने समझ रखा है।'

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