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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

जब वह माँ का सहारा लिए बाहर आई तो हैरान रह गई। सराय के सब लोग उसकी ओर देख रहे थे और नन्हें पाशा के संकेत पर उसके सम्मुख झुक गए मानों कोई प्रजा अपनी राजकुमारी का स्वागत कर रही हो।

बारी-बारी सब चबूतरे के पास आए और सब खाना बीबी को बधाई देते हुए कुछ-न-कुछ उपहार के रूप में संध्या के पांवों में रखते गए।

थोड़े ही समय में उसके पास रुपयों और दूसरी वस्तुओं का ढेर लग गया। संध्या ने प्रश्न-सूचक दृष्टि से अपने मामा की ओर देखा जिसने बताया कि ये सब लोग उसकी माँ के ऋणी हैं - उसके प्यार और सहानुभूति के आभारी...और यह उपहार उसकी बेटी के आने के उपलक्ष्य में दे रहे हैं।

संध्या के मस्तिष्क में आनंद के वे शब्द फिर गए, संसार बहुत बड़ा है... हम और तुमसे भी बड़ा.. जाओ और सच्ची शांति खोजो... किसी का सहारा लेकर उसने अनुभव किया जैसे उसे आज का सहारा मिल गया हो.. गरीबों का सहारा... जिनके मन में प्रेम का उमड़ता सागर है... जो जीवन की वास्तविक शांति का मार्ग बता सकेंगे... और वह अपने मन के नीलकण्ठ का प्यार बांट देगी इन गरीबों में एक नदी के समान... एक स्रोत की भांति... खाना खाने के पश्चात् जब वह माँ के बिस्तर पर लेटी तो उसे एक आंतरिक सुख-सा मिलने लगा। उसके सामने वे सब चीजें पड़ी थीं जो लोगों ने उसे उपहार में दी थीं।

उसने देखा कि उसके मामा खर्राटे ले रहे हैं और माँ उसके साथ लिपटी मीठी नींद में खोई हुई थी। वह धीरे से बिस्तर से उठी और दबे पांव बाहर की ओर बढ़ी। थोड़े समय पहले जहाँ शोर मचा हुआ था, अब वहाँ सन्नाटा था। चबूतरे पर से होती हुई वह उन लोगों के बीच में चलने लगी। छत से लटके तेल के लैंप के टिमटिमाते हुए उजाले में फर्श पर लेटे आदमियों का गिरोह यों प्रतीत होता था जैसे पंक्तियों में लाशें बिछी हों।

सवेरे संध्या की आँख देर से खुली। अभी तक उसकी आँखों में रात-भर जागने की थकान थी। सुबह से ही सराय में चहल-पहल आरंभ हो गई। कहवे की प्यालियाँ बजने लगीं। संध्या अब इस शोर से घबरा रही थी, उसे लगता था जैसे वह भी उसी वातावरण का एक भाग है।

उसने अपने बिखरे हुए बालों को सुलझाया और साड़ी का पल्लू कमर के गिर्द लपेट लिया। उसे बाहर जाने से पहले अपने-आपको संवारने का कोई विचार न आया। लगा जैसे वह सब झूठी प्रदर्शनी अब और नहीं चलेगी। वह चबूतरे पर आई। प्रसन्नता में कांपते हुए हाथों से माँ ने स्नेहपूर्वक कहवे का एक प्याला संध्या की ओर बढ़ाया। संध्या ने प्याला ले लिया और देखते हुए बोली-

'आप..?'

'सुबह से चार पी चुका हूँ.'

'तो पांच सही... ' संध्या ने यह प्याला उसकी ओर बढ़ा दिया और माँ से एक प्याला और ले लिया। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए और कहवा पीने लगे। हॉल में बैठे लोगों को देखते हुए संध्या ने पूछा-'ये सब क्या करते हैं?

'झक मारते हैं-’ नन्हें पाशा ने अपने शब्दों पर जोर देते हुए कहा-'बम्बई की लंबी-चौड़ी सड़कों पर सवेरे से सांझ तक काम खोजते हैं - कोई नौकरी की खोज में और कोई मजदूरी की - किसी की दृष्टि भोले आदमियों की तलाश में रहती है कि उनकी जेब पर छापा मारें।'

'तो क्या ये चोरी भी करते हैं?' उसने फिर से पूछा।

'यह बम्बई है - इसे चोरी नहीं कहते - यह भी एक धंधा है - वह देखो सामने छक्कन चाचा को - जानती हो क्या करते हैं?'

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