ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'बस, इसी पर बिगड़ बैठीं।' आनंद ने एक ठहाका लगाया और फिर बोला-'संध्या आगे आओ।'
'नहीं, यहीं ठीक हूँ।' वह गंभीर मुद्रा में बोली।
'अब आ भी जाओ' आनंद ने उसे बांह से खींचते हुए कहा और कुछ हठ के पश्चात् उसे फ्रंट सीट पर अपने साथ बिठा लिया।
'परंतु उसमें झूठ ही क्या था?' आनंद ने पुन: गाड़ी चलाते हुए कहा। 'झूठ हो या सच पर यह रहस्य ही रहना चाहिए।'
'वह क्यों?'
'इसलिए कि यह बात कहीं वायु में उड़कर ही न रह जाए।'
'तो तुम ऐसा भी सोचती हो?'
'आप पुरुषों का क्या भरोसा! जब मन चाहा बोरिया बिस्तर समेटा और चल दिए।'
'इसमें हमारा क्या दोष-यदि किसी सराय में आराम् और सुख न मिले तो यात्री बेचारे के पास उपाय ही क्या रह जाता है?'
'यदि किसी का हृदय ही अशांत हो तो सराय की सुविधाएं उसे क्या सुख देंगी। सराय से मन का उठ जाना वहाँ के कष्टों पर नहीं वरन् किसी सुंदर विश्राम-घर की चमक-दमक पर निर्भर है।'
'ओह! तो आज आप हमें निरुत्तर ही करके छोड़ेंगी। लो मैंने हार मानी।' 'परंतु इस हार में तो आप ही की जीत छिपी है।'
बातों-बातों में दोनों समुद्र तट पर पहुँच गए। आनंद ने गाड़ी एक ओर लगा दी और संध्या को खींचकर पानी की ओर ले चला। दोनों के हृदय सागर की उठती तरंगों के समान उल्लास से उछल रहे थे।
संध्या सैंडिल उतारकर साड़ी को घुटनों तक उठा पानी में उतर गई और संकेत से आनंद को अपने समीप बुलाने लगी। उसके न आने पर स्वयं खींचकर उसे लहरों में ले आई। आनंद चिल्लाया! उसकी पतलून और जूते सब भीग गए परंतु संध्या ने एक न सुनी।
पानी की एक बड़ी उछाल आई और दोनों को सिर से पांव तक भिगो गई। दोनों एक दूसरे को थामे मौन खड़े थे। मानों उछाल के उतार के साथ ही यौवन का उत्साह बह गया हो। संध्या ने शरीर से चिपके हुए कपड़ों को ठीक करने का व्यर्थ प्रयत्न किया और धीरे-धीरे पाँव उठाती तट की ओर बढ़ी। तट पर बिछी एक बेंच पर बैठकर वे अपने कपड़ों को निचोड़ने लगे।
'घर वाले पूछेंगे तो क्या कहूँगी?' संध्या ने दृष्टि नीचे किए हुए पूछा। 'कह देना, समुद्र में कूदी थी।'
‘किसलिए?’
‘शरीर से ज्वाला जो भड़क रही थी। फायर-ब्रिगेड नहीं तो समुद्र ही सही।’
‘चलिए हटिए, आपको मजाक सूझ रहा है। मेरे तो भय से प्राण निकले जा रहे हैं।’
‘प्रेम का दूसरा नाम ही उपहास है।’
‘तो आप प्रेम की पवित्र भावना को उपहास समझते हैं?’
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