ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'तो आपको ड्राईवर बना लेंगे।' पास खड़ी रेनु बोल उठी।
'हट दुष्ट कहीं की।' मालकिन ने रेनु को डांटते हुए कहा। रायसाहब यह सुनकर मुस्करा दिए और फिर आनंद की ओर देखते हुए बोले-
'तो इसमें हानि ही क्या है। इसी बहाने हम भी मोटर चलाना सीख लेंगे।' आनंद उनसे विदा लेकर मोटर की ओर बढ़ा। निशा और संध्या वहाँ न थीं। आनंद ने इधर-उधर देखा किंतु वे कहीं दिखाई न दीं। विवश - खिन्न मन से मोटर स्टार्ट की और फाटक से बाहर निकल गया।
गाड़ी थोड़ी दूर ही गई थी कि सामने पटरी पर संध्या और निशा पैदल चलती हुई दिख पड़ीं। आनंद ने चाहा कि गाड़ी को दौड़ाकर आगे बढ़ जाए किंतु इससे पहले ही दोनों ने मुड़कर उसे आते देख गाड़ी खड़ी करने के लिए संकेत किया। आनंद ने गाड़ी बिस्कुल उनके समीप रोक ली और संध्या को देखते हुए गंभीरतापूर्वक बोला-'कहिए।'
'देखिए. हमें सामने चर्च तक जाना है, यदि लिफ्ट दे सकें तो।'
'ओह समझा. परंतु मेम साहिबा यह गाड़ी मेरी नहीं रायसाहब की है और उनकी आज्ञा के बिना किसी को लिफ्ट देना उचित न होगा।'
'तो क्या हुआ-एक दिन हमारे लिए चोरी ही सही।'
'नहीं मेम साहिबा, मुझ गरीब की नौकरी का प्रश्न है। मैं अपने पेट पर स्वयं लात कैसे मार सकता हूँ।'
'घबराइये नहीं, यदि रायसाहब ने नौकरी से जवाब भी दे दिया तो हम अपने पास रख लेंगे।'
'आप क्या देंगी मुझे। केवल दो समय का खाना - रायसाहब तो मुझे वह सब कुछ देनेवाले हैं जो आप क्या दे पाएंगी?'
'हम भी तो सुनें - क्या?'
'अपनी लाडली - अर्थात् हमें अपना-'
'आनंद!' संध्या चिल्लाई और निशा को खिलखिलाते देखकर लजा गई। आनंद ने हाथ बढ़ाकर मोटर का द्वार खोला और दोनों हँसती हुई भीतर आ बैठीं।
निशा को घर छोड़कर आनंद ने मोटर समुद्र की ओर मोड़ दी। दोनों कुछ समय तक मौन बैठे रहे। आनंद गाड़ी में लगे दर्पण में संध्या के मुख के भाव देखकर मन-ही-मन मुस्करा रहा था। उसके कपोलों पर एक रंग आता और दूसरा जाता। अंत में आंचल को उंगलियों में लपेटते हुए बोली-
'आनंद!'
'हूँ।' 'यह आपने अच्छा नहीं किया।'
'ओह!' आनंद ने गाड़ी रोकते हुए कहा-'मैं तो भूल ही गया था।'
'पर आपने गाड़ी क्यों रोक दी?'
'इसलिए कि मैंने यह अच्छा नहीं किया। तुम पीछे अकेली और मैं-' 'परंतु मेरा आशय यह न था।' वह बात काटते हुए बोली-'मैं तो उस बात को कह रही थी जो आपने निशा के सम्मुख कह दी।'
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