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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'चौकीदार!' इस भारी स्वर ने आनंद को वहीं स्थिर बना दिया। बेला ने मुड़कर दूसरी ओर देखा। स्टेशन मास्टर साहिब गाड़ी के साथ-साथ चले आ रहे थे। उनके हाथ में रेलवे की लालटेन थी। समीप आकर उजाले में बेला को ध्यानपूर्वक देख उन्होंने पूछा-'आप कौन?'

'एक यात्री।'

'यात्री! किंतु इस समय उजाड़ में क्यों बैठी हो?'

'पूना की गाड़ी मिस कर दी।'

'वेटिंग रूम खुलवा लिया होता।' आनंद के पिता ने नम्रता से कहा।

'यूं ही चंद घंटों के लिए कष्ट देना उचित न समझा।'

'कदाचित् आपको ज्ञात नहीं अगली गाड़ी सवेरे नौ बजे मिलेगी।'

'हे भगवान! तो इतनी भयानक रात कैसे कटेगी?'

'इसीलिए तो कहा है कि... '

'आप ठीक कहते हैं किंतु प्लेटफॉर्म पर यूँ अकेले - क्या आप मुझे किसी पास के होटल में भिजवा सकते हैं?'

'होटल दो मील से कम दूरी पर कोई नहीं है और फिर इतनी रात गए कैसे जाओगी?'

बेला ने मुख पर घबराहट के चिह्न उत्पन्न करते हुए स्टेशन मास्टर और आनंद दोनों को देखा। आनंद चौकीदार के भेष में भय से धरती में गड़ा जा रहा था। बेला के मुख पर चिंता को देख स्टेशन मास्टर साहब बोले-

'यदि हानि न समझो तो मेरे घर ही चलो। आराम से रात कट जाएगी।' 'जी!' जैसे उनकी बात उसके मन भा गई हो।

'मुझे जाने में तो थोड़ी देर है, चौकीदार तुम्हें ले जाएगा।' 'तो वहाँ..'

'घबराओ मत - मेरी पत्नी तुम्हारा स्वागत करेगी।'

बेला ने वहाँ जाने की बात सुन मुस्कराते हुए आनंद की ओर देखा जो स्टेशन मास्टर का संकेत पा सामान उठा रहा था। क्या दृश्य था और क्या विवशता - हर कोई अपने स्थान पर ही ठीक था।

स्टेशन मास्टर के कहने के अनुसार आनंद सामान उठा तेज पग बढ़ाता अपने घर की ओर चला जा रहा था और बेला चुपके से मुस्कराती साथ-साथ। दोनों चुपचाप थे, मौन को तोड़ते हुए बेला ने कहा-'लाओ कुछ मुझे दे दो।'

'धन्यवाद!'

'आप मुझसे बिगड़ गए? भला इसमें मेरा क्या दोष है - आज्ञा तो आपके पिता की है।'

'जी!' वह फूले साँस में भारी स्वर में इतना ही कह पाया। सामान के बोझ में उसका शरीर दबा जा रहा था परंतु वह विवश था।

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