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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

न जाने कितनी बार उसने स्टेशन वालों से पूना एक्सप्रेस का समय पूछा। परंतु इतने बड़े स्टेशन पर उसे कोई भी ऐसा न मिला जो उसे पाँच से कम कह दे। एक प्रश्न पर तो वह स्वयं लज्जित हुई। न जाने किस विचार में खोई एक बूढ़े सिगनलमैन से पूछ बैठी-'क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि गाड़ी पाँच बजे से पहले आ गई हो।'

बूढ़े ने नाक सिकोड़ते हुए उत्तर दिया-

'देवी जी, यह सरकार की गाड़ी है, किसी मनचले युवक का छकड़ा नहीं जो झट आपकी सेवा में उपस्थित हो जाए।'

' छकड़ा!' उसने बूढ़े की बात का बुरा न माना। प्रश्न तो उसका अपना ही बेढंगा था और फिर इस शब्द ने उसे स्मृति दिला दी। आनंद ने भी तो उसके हृदय का मूल्य एक छकड़ा रखा था। क्या कभी ऐसा भी हो सकता है कि आनंद अपना मन थामे उसके पाँव में हो और उसका मूल्य पूछे-स्टूडी बेकर अथवा छकड़ा।

घड़ी ने तीन बजाए और बेला ने संतोष की एक लंबी साँस खींची। उसकी प्रतीक्षा के केवल दो घंटे ही शेष थे। अब उसे भूख सता रही थी। वेटिंग-रूम से निकल वह टी स्टाल पर गई और चाय पीने लगी। इसके पश्चात् पत्रिकाएँ देखीं और फिर प्लेटफॉर्म पर इधर-उधर घूमी। समय तो आखिर बिताना ही था। पांच बज गए और बेला का हृदय उल्लास से उछलने लगा। वह सामान कुली के पास छोड़ पूछताछ खिड़की की ओर बड़ी। उसकी आशाएँ एक ही उत्तर पर बुलबुल के समान मिट गईं। गाड़ी दो घंटे लेट थी। बंबई और कल्याण के बीच एकाएक अधिक वर्षा हो जाने से पटरियों में पानी भर गया था अत: गाड़ी को अपनी गति बहुत कम करनी पड़ी।

वर्षा को भी आज ही आना था। बेला झुंझला उठी और क्रोध भरी दृष्टि से आकाश पर बिखरे हुए बादल के उन टुकड़ों को देखने लगी जो एक-दूसरे से गले मिल रहे थे। उनके मिलने में शांति नहीं बल्कि हलचल छिपी हुई थी। फैलते हुए अंधियारे में बिजली छिपी बैठी थी जो किसी समय भी कौंध सकती थी। यही दशा इस समय बेला की थी। हृदय में जलन-यहाँ भी एक बिजली छिपी हुई थी। सावन की उठती घटा की भांति उसकी अभिलाषाएँ भी आज पूरे यौवन पर थीं। किंतु कितना अंतर था दोनों की उमड़ती मादकता में। बादल तो बरस कर अपना बोझ हल्का कर लेंगे पर यह बाढ़ कहाँ जा रुकेगी जिसमें जल-कण के स्थान पर ज्वाला छिपी हुई है।

पूना एक्सप्रेस जब कल्याण पहुँची तो घटनाएँ भरपूर यौवन में बरस रही थीं। बेला ने अपनी कलाई घड़ी को देखा तो पूरे सात बजे थे। गाड़ी ठीक दो घंटे लेट थी।

कुली को सामान के निकट रहने का आदेश दे वह स्वयं गाड़ी के डिब्बों को देखने लगी। उसके व्याकुल मुख पर मंद मुस्कान की रेखा खिंच गई। आनंद एक दूसरे दर्ज के डिब्बे की खिड़की से बाहर झांक रहा था। बेला एक स्तम्भ की ओट में हो गई और उसने कुली को सामान उस डिब्बे में रखने को कहा।

जब कुली सामान रखकर वापस लौटा तो बेला ने उसकी हथेली पर एक रुपया रखकर पूछा, 'कितने यात्री हैं डिब्बे में?'

'एक बाबू साहिब और वह भी अकेले।'

'हूँ।'

'महिलाओं के डिब्बे में सामान लगा दें क्या?'

'नहीं रहने दो', बेला ने डिब्बे की खिड़की की ओर देखते हुए कहा जो बंद हो चुकी थी और वह धीरे-धीरे पग बढ़ाती डिब्बे की ओर बढ़ी।

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