ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'लीजिए - इससे अपना काम चलाइए - यह कारखाना दोबारा आरंभ करना होगा - आखिर ये लोग कब तक बेकार रहेंगे।'
आनन्द ने कांपता हुआ हाथ बढ़ाया और चैक को लेकर पलटकर देखने लगा। न जाने उसे क्या सूझी कि अचानक चैक उसने बेला को लौटा दिया और ऊँचे स्वर में चिल्लाकर बोला-
'नहीं, नहीं, तुम मुझे धन की झलक दिखाकर नहीं खरीद सकतीं। तुम सेवा का ढोंग रचाकर संध्या नहीं बन सकतीं - मुझे रुपये से बढ़कर एक ऐसी आत्मा की आवश्यकता है जो मुझे अंधेरे में मार्ग दिखाए - जो ठोकर लगते ही संभाल ले।' बेला की आँखों में अपनी बेबसी पर आँसू आ गए - उसने वह चैक वहीं रहने दिया और अपने बिस्तर पर जा लेटी। आनन्द ने देखा बेला तकिये में मुँह छिपाए रो रही है। उसके कानों में सिसकियों की आवाज आ रही थी किंतु वह दिल कड़ा किए पड़ा रहा और उसे ढांढस बंधाने कोई न उठा। सुबह जब उसकी आँख खुली तो कमरे में उजाला हो चुका था।
सामने रखी घड़ी पाँच बजा रही थी। आज बड़े समय पश्चात् उसे नींद आई थी। सोने से पहले उसका बोझिल मन कुछ हल्का हो गया था।
ज्यों ही उसने स्वयं को एकत्रित किया उसके कान बाहर किसी शोर में गूंज उठे। धीरे-धीरे शोर साफ होता गया। वह अज्ञात भय से कांप उठा और बिस्तर पर बैठकर देखने लगा। साथ वाला बिस्तर खाली पड़ा था। बेला वहाँ न थी। पालने में पड़ा बच्चा मीठी नींद सो रहा था। वह कुछ देर उसे देखता रहा। आज ही तो जी भरकर उसने अपने नन्हें को देखा था।
उसने फिर देखा। बेला कमरे में न थी और बाहर शोरगुल था। रात वाला चैक वहीं गिरा हुआ था। उसने झुककर उसे उठाया और लपेटकर जेब में रख लिया। तेजी से उसने जूते पहने और बाहर निकल आया।
बरामदे में पांव रखते ही वह सिर से पांव तक कांप गया। मजदूरों की भीड़ कारखाने के मलवे के सामने काम में व्यस्त थी। उनकी आवाजों से कुछ न जान पड़ता था कि क्या माजरा है।
आनन्द तेज-तेज पग बढ़ाता हुआ उधर बढ़ा। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी जैसे कोई बार-बार संध्या का नाम ले रहा हो। वह भीड़ के पास पहुँच गया। सामने सुंदर और नन्हें पाशा चिल्ला-चिल्लाकर मजदूरों का साहस बढ़ा रहे थे और सब मिलकर मलबे का ढेर साफ कर रहे थे। सुंदर आनन्द को देखते ही मुस्करा दिया और चिल्लाया-
'हमारी संध्या दीदी लौट आईं।'
मामू ने भी हाँ में सिर हिलाया और कहा-
'आनन्द बाबू - मेरी बिटिया लौट आई।'
आनन्द अभी तक उलझन में पड़ा उनकी बातों को न समझ सका। वह वहाँ पहुँचने का प्रयत्न करने लगा जो स्थान सबकी दृष्टि का केन्द्र बना हुआ था। आनन्द को आते देख सब रास्ता छोड़कर एक ओर हो गए। भीड़ के हटते ही आनन्द के पांव एकाएक रुक गए और वह सामने पड़े ढेर को देखने लगा। जिस पर बेला खड़ी बेलचों से उठाकर मजदूरों की टोकरी में डाल रही थी। आनन्द को देखते ही उसके हाथ रुक गए और उसने झट से बांह से चेहरे पर आया पसीना दूर करना चाहा। शीघ्रता से बांह पर लगी कालिख मुख पर लग गई - जैसे चांद पर दाग, आनन्द यह देखकर मुस्करा उठा। बेला ने भी उसका उत्तर मुस्कान में ही दिया।
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