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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


तेईस

संध्या की मौत को आज पंद्रह दिन बीत चुके थे। रायसाहब के कहने पर भी आनन्द ने उनके यहाँ रहना उचित न समझा और क्रिया-कर्म के पश्चात् वह संध्या के मकान में लौट आया।

बेला भी बच्चे को लेकर वहीं चली आई। हर ओर शोक छाया हुआ था।

जहाँ उसे बच्चों की खुशियों के दिन मनाने थे वहाँ शोक मनाया जा रहा था। आज वह कितने ही दिनों से आनन्द को ध्यानपूर्वक देखे जा रही थी। उसकी इस दशा को देखकर कई बार वह एक अज्ञात भय से कांप उठी। वह उसका मन बहलाने का बहुत प्रयत्न करती किंतु वह मूर्ति बना किसी गहरी सोच में डूबा रहता - जैसे कोई भारी दु:ख उसे भीतर-ही-भीतर खाए जा रहा हो। आज भी उसकी आँखें आनन्द पर जमीं थीं जो खिड़की का सहारा लेकर बाहर उजड़े हुए कारखाने को देख रहा था। जिसे कभी खून-पसीना एक करके संध्या ने बसाया था और जो अब बेकार मशीनों और मिट्टी-ईटों के ढेर के सिवाय कुछ न था।

जो मशीनें बच रही थीं उन पर उन्होंने टाट बांध दिए थे। कारखाना गिरने से कितने ही मजदूरों की आजीविका मारी गई थी और वे हाथ पर हाथ धरे अपने भाग्य पर आँसू बहा रहे थे।

मामू और सुंदर ने कई बार आनन्द से कहा भी कि उनके जीवन को बचाने का एकमात्र उपाय यही था कि कारखाना दोबारा चले और चलने के लिए भारी पूंजी की आवश्यकता थी। रायसाहब के सामने वह हाथ फैलाना न चाहता था। बेला के पास स्वयं अपने पैसे थे किंतु वह शायद इस काम के लिए फूटी कौड़ी भी न दे और दे भी तो वह सदा के लिए उसके अधीन हो जाएगा।

ये चिंताएँ, संध्या का दुःख और अपने विवाहित जीवन के भविष्य का विचार दिन-ब-दिन उसे खाए जा रहे थे। उसकी दशा उस काठ की भांति थी जिसे बीच से घुन ने खोखला कर दिया था - किंतु जो ऊपर से वैसा ही दिखाई पड़े। 'यों देखते रहने से क्या वह लौट आएगी?'

'हूँ' - अपने विचारों में डूबे आनन्द के होंठों से निकला। उसने मुड़कर देखा। बेला एकटक उसे देखे जा रही थी।

'दीदी के विषय में सोच रहे थे आप क्या?'

'हाँ बेला - सोचता हूँ - उसकी अभिलाषा पूरी न हुई।'

'आपको तो ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिए - साहस से काम लीजिए - सबको एकत्र कीजिए - कारखाना फिर चल सकता है।'

'केवल साहस से काम चलता तो बात और थी। अच्छी-खासी धनराशि चाहिए - अब तुम ही कहो यह कहाँ से आएगी?' आनन्द ने बेला की ओर देखते हुए कहा।

बेला चुप रही। वह चाहती तो आनन्द की इस समस्या को सुलझा सकती थी। वह सोचने लगा, दोनों बहनों में कितना अंतर था - एक ने दूसरों के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया और दूसरी इतनी..।

शाम हो चुकी थी। अंधेरा पांव पसार रहा था। आनन्द कारखाने के खंडहरों में घूम रहा था। वहाँ के कण-कण में उसे संध्या की तस्वीर दिखाई देती - वहाँ चलती हुई हवा में उसी के आशापूर्ण शब्द गूंज रहे थे।

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