ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
संध्या ने क्षण-भर रुककर स्नेह से उसकी ओर देखते हुए फिर कहना आरंभ किया,'तुम्हारे प्रेम में द्वेष, डाह, भ्रम, झूठा सम्मान और वासना है - किंतु मैंने अपने प्रेम की रक्षा के लिए उस फुलवारी को मन के लहू, मान और बलिदान से सींचा है - तुमने अपनी चंचलता से उनका शरीर खरीदा है और मैंने मन का मूल्य पाया है - यदि तुम भी उनके मन पर अधिकार पाना चाहती हो तो प्रेम का यही मार्ग अपनाओ - स्वयं को मिटाकर उनको उठाओ - उन्हीं की उन्नति में तुम्हारा मान है और उनकी अवनति में तुम्हारा अपमान।'
संध्या कहते-कहते एकाएक चुप हो गई - उसके होंठ अभी तक कांप रहे थे जैसे वह मन में छिपी सब भावनाओं को उजागर कर देना चाहती हो - उसने अधिकार से काम लिया। ऐसी दशा में उसे बेला को चिंतित न करना चाहिए। उसने देखा, बेला के माथे पर पसीना फूट-फूटकर पानी बन रहा था। वह थोड़ा-सा और उसके निकट होकर बड़ी नम्रता से बोली-'अब लेट जाओ-' बेला बिस्तर पर लेट गई और संध्या चिलमची का गंदा पानी फेंकने बाहर चली गई। बेला दीदी की इन बातों से जल गई थी। वह उस कमरे की हर वस्तु को घृणा से देखने लगी, जिसके कण-कण में संध्या और आनन्द के प्रेम की कहानी छिपी थी।
गुसलखाने का किवाड़ बंद हुआ और बेला के विचारों की डोर कट गई। उसने दृष्टि घुमाकर उधर देखा। संध्या नहाने चली गई थी। सहसा एक विचार ने अचानक उसके मस्तिक पर हथौड़े मारने आरंभ कर दिए - चोटों की गति बढ़ती गई और वह बेचैन होकर तड़पने लगी।
विचार ने क्रिया का रूप धारण कर लिया। वह बिस्तर से उठी और एक गठरी की भांति लड़खड़ाती सामने आई। अलमारी की ओर बढ़ी। कठिनाई से झुकते हुए उसने मेज पर रखी दवा की पुड़ियों को उठा लिया और उन्हें अलमारी वाली जहरीली पुड़ियों से बदल डाला। यह सब एक क्षण में हुआ और हाँफती हुई धड़ाम से बिस्तर पर जा लेटी। उसे अपनी इस दशा पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था।
संध्या नहाकर गीले कपड़ों को बरामदे में सुखाने बाहर आई तो उसके कानों में बेला की पीड़ा से कराहने की आवाज आई। वह भीगी हुई भीतर आई और बेला की ओर लपकते हुए बोली-'क्या बात है?'
बेला चुप रही परंतु पसीने से लथपथ चेहरे और हाथे-पाँव मारने से प्रतीत होता था कि उसे तीव्र पीड़ा उठ रही है। संध्या ने धीरज देते हुए उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और अपने पल्लू से उसका पसीना पोंछने लगी। कांपते होंठों से बेला ने उसकी ओर देखते हुए कहा-'मेरा दिल डूबा जा रहा है।' संध्या ने झट मेज से एक पुड़िया उठाई और पानी में मिलाकर बेला को पी जाने के लिए कहा। उसने कांपती उंगलियों से गिलास पकड़ा और पीने का प्रयत्न करने लगी।
बेला के कहने पर संध्या आनन्द को बुलाने के लिए टेलीफोन की ओर झुकी। अपनी ओर उसकी पीठ देखकर बेला ने गिलास वाली दवा आँख बचाकर खिड़की से बाहर उड़ेल दी और संध्या के मुँह फेरते ही गिलास उसे इस ढंग से पकड़ाया जैसे एक ही घूंट में उसने पूरी दवा गले में उतार ली हो। क्षण-भर शांत रहकर वह फिर बेचैन हो उठी और दांत पीसकर अपनी बेचैनी प्रकट करने लगी। दीदी से उसने कहा कि दवाई ने शरीर में आग-सी लगा दी है और उसका कलेजा जल रहा है। संध्या ने उसकी दशा बिगड़ती देखकर आनन्द और डॉक्टर को टेलीफोन पर बुला लिया।
आनन्द के कुछ मिनट पश्चात् डाँक्टर भी आ गया। तीनों बेला की घबराहट देखकर विस्मित हो गए। कोई ऐसा कारण न था। डाँक्टर ने निरीक्षण किया और कुछ न समझ सका।
उसने संध्या को उसे एक और पुड़िया देने को कहा। संध्या ने फिर वही पुड़िया पानी में मिलाई और बेला के पास ले आई। बेला ने दवाई पीने से इंकार कर दिया। कहने लगी -
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