ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
हुमायूं झट से आकर टेलीफोन पर संध्या का नंबर मिलाने लगा।
'हैलो संध्या! मैं हुमायूं - अपना काम बंद है - लेकिन मैं फारिग नहीं - बरसात जोरों पर है और मैं पानी में आग लगा रहा हूँ - आप ठीक समझीं - मुमकिन है अब उसने आप ही के घर का रुख किया हो, मेरा निशाना खाली न जाए, नाटक पूरा होना चाहिए - कहीं झट से मरहम न रख देना - हाँ भई, औरतों के नाजुक दिल का क्या कहना - आप आग पर तेल छिड़क दो, आगे मैं संभाल लूँगा - आनंद सो रहा है - इतना सुहाना समय और तुम लोग नींद में खो रहे हो?' टेलीफोन रखकर हुमायूं भी दफ्तर से बाहर आया और ऊँची आवाज में चौकीदार को टैक्सी भीतर भेजने को कहा।
बरसात का तूफान हर घड़ी बढ़ता जा रहा था। काली घटाएँ घनी हुई जा रही थीं। दिन के उजाले में धीरे-धीरे रात का अंधकार सम्मिलित होने लगा। कुछ ऐसा अंधकार बेला के मन में भी फैल रहा था। वह मोटर गाड़ी को बम्बई की सुनसान सड़कों पर दौड़ाए जा रही थी। शीशे पर टपकता पानी जैसे ही साफ होकर नीचे गिर जाता तो चंद क्षण के लिए वातावरण साफ दिखाई देने लगता। उसे यों अनुभव होता जैसे उसके मन में फैला अंधकार चंद क्षण के लिए छट जाता और अंधकारमय जीवन में हल्की-सी आशा की किरण समा जाती। वह अपने विचारों में खोई इस तूफान में बढ़ती गई है।
बेला ने गाड़ी सीधी नीलकंठ की बस्ती में जा रोकी। वर्षा का जोर पहले से कुछ घट गया था। वह गाड़ी से निकलकर संध्या के मकान की ओर बढ़ी और बरामदे में रुककर अपने गीले बालों को रुमाल से सुखाने लगी। बाहर कोई न था। वह एक अजनबी की भांति इधर-उधर देख रही थी। उसकी दिल की धड़कन हर क्षण बढ़ती जा रही थी। वह धीरे-धीरे पाँव उठाकर दीवार के साथ-साथ चलने लगी, किसी की हँसी की आवाज सुनकर वह एक खिड़की के पास रुक गई।
बरसात का सुहावना मौसम और उसमें गुदगुदा देने वाली हँसी - उस पर बिजली-सी कौंध गई। अपने दिल की धड़कन को वश में रखते हुए उसने खिड़की का पर्दा अपनी उंगलियों से हटाकर भीतर झांका - उसके पाँव तले की धरती खिसक गई।
आनन्द सोफे पर लेटा कोई पुस्तक पढ़ रहा था, संध्या नीचे कालीन पर बैठी अंगूरों का एक गुच्छा उसके मुँह के पास ले जाती और जब वह मुँह खोलता तो उसे झट से हटा लेती - और दोनों हँस पड़ते।
उसने स्वयं ऐसे कई हाव-भाव सीख रखे थे किंतु आज संध्या को यों करते देखकर उसका कलेजा जलकर राख हो गया। क्रोध से उसके होंठ कांपने लगे जैसे अभी वह खिड़की से कूदकर उस पर बरस पड़ेगी। परंतु धैर्य से काम लिया और अपने प्रेम का उपहास देखती रही।
आज बड़े समय पश्चात् उसके मन में सोई प्रेम की ज्वाला फिर भड़क उठी। आनन्द को पाने की इच्छा फिर प्रबल होकर जाग उठी - वह अपने शिकार को किसी दूसरे के हाथों में क्योंकर देख सकती थी।
उसने मन को कड़ा किया और नागिन की भांति बल खाकर द्वार की ओर बढ़ी।
संध्या ने बाहर किसी के आने की आहट सुनी पर वह घबराई नहीं। उसने बेला की गाड़ी फाटक के भीतर आती देख ली और फिर हुमायूं का टेलीफोन आने पर तो उसे उसे पूरा विश्वास था कि बेला अवश्य आएगी और वह इसके लिए तैयार थी।
उसने अंगूरों का गुच्छा एक बार फिर आनन्द के पास ले जाकर हटा लिया। आनन्द ने लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-'कब तक तरसाओगी?'
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