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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

बेला ने जब आनंद को क्रोध में भरे हुए और पसीने से तर देखा तो चुप हो गई। वह उसकी असाधारण दशा देखकर समझ गई कि आज विष्णु से तकरार हुई होगी। तीर निशाने पर लगा जानकर वह अपनी विजय पर मन-ही-मन प्रसन्न थी।

कहीं आनंद पर उसकी बातों ने प्रभाव न डाल दिया हो - यह सोचकर वह एक अज्ञात भय से कांप उठी और शीघ्रता से खाने का प्रबंध करने लगी। बाबूजी भी खाने के लिए आ गए परंतु माँ न आई। आज पूरे दो दिन से उसने कुछ न खाया था।

बेला ने सास-ससुर को प्रभावित करने का अच्छा अवसर देखा और विनती करके माँ को खाने के कमरे में ले आई। बेला को सहारा देते माँ को लाते देखकर आनंद का क्रोध दूर हो गया। विष्णु से हुई झपट के बारे में उसने किसी से कुछ न कहा।

वह स्वप्न में भी न सोच सकता था कि इस भोलेपन के पर्दे में कोई विषैली नागिन छिपी है, जो हाथ उसके माता-पिता की सेवा में उठे वे नागिन की भांति फन फैलाए हुए हैं।

क्रियाकर्म के दूसरे दिन ही बाबा खंडाला लौट आए परंतु आनंद ने माँ को बलपूर्वक वहीं रख लिया। बेला को उसकी यह बात भाई तो नहीं पर कुछ न कह सकी।

दिन बीतते गए और धीरे-धीरे मन का घाव तो पुराना होकर एक धुंधली-सी याद बनकर रह गया। बेला और आनंद की आँखों में फिर से चमक आने लगी। घर के उदास और मौन कोनों में कभी-कभी दोनों खिलखिला उठते और एक-दूसरे से प्यार करके मन की धड़कनों को परख लेते। बेला का सौंदर्य और आनंद की चाहत फिर से उन्हें उस सीमा पर ले आई जहाँ आशाओं के उड़न खटोले में जीवन बहुत मधुर प्रतीत होता है।

परंतु एक छाया थी जो हर समय अब भी उस पर बोझ सा डाले रखती - वह थी आनंद की माँ जो ज्योति कम होने के कारण घर के कोने में लड़खड़ाती फिरती - उसे चैन न था। बेटे की मृत्यु ने उसे पागल बना रखा था - वह एक बेचैन आत्मा के समान भटकती रहती पर किसी से कुछ न कहती।

उसे देखकर दोनों की चहचहाहट और हँसी बंद हो जाती। कहीं वह यह न सोच बैठे कि भाई का मरना भूलकर आनंद रंगरलियों में मस्त है। कभी वे पिकनिक या सैर प्रोग्राम बनाते तो वह इस कारण से रह जाता कि माँ को अधिक समय अकेले छोड़ना उचित नहीं।

बेला की दृष्टि में अब सास एक कांटे के समान खटकने लगी - अपाहिज देवर की भांति - तो क्या उसे इसको भी अपने मार्ग से हटाना होगा - यह विचार आते ही वह कांप जाती - अब उसमें इतना साहस न था।

दिन बीतते गए और बेला विवश-सी होकर अपने विचारों में सिमटी बैठी रही। उसने सास से अधिक बातचीत करना छोड़ दिया और दिन-रात यही सोचती रही कि कोई ऐसी बात बन जाए कि उन दोनों में बिगाड़ हो जाए और तंग आकर वह स्वयं ही खंडाला चली जाए। आनंद से बेला की मानसिक दशा छिपी न रही।'

थोड़े ही दिनों बाद आनंद ने माँ को खंडाला भिजवा दिया जिससे वह अकेले में बीवी को समझा सके। किंतु उसकी उदासी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। वह किसी बात का भी पूरा उत्तर न देती। सारा दिन लेटी रहती और घर के किसी काम में रूचि न लेती मानों किसी बड़े रोग का शिकार हो गई हो। एक शाम जब आनंद वर्कशॉप से लौटा तो साधारणत: बेला को उदास न पाकर चकित रह गया। आज वह पलंग पर लेटी हुई नहीं थी बल्कि बेल-बूटों में पानी दे रही थी। उसने बड़े दिनों पश्चात् आज अच्छे कपड़े पहने थे और श्रृंगार किया था। मुस्कुराते हुए आनंद का स्वागत किया और बोली, 'पाँच बज गए क्या?'

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