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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहा, “हाँ, यों सेतु बनना चाहना है बड़ी मूर्खता - क्योंकि सेतु दोनों और से केवल रौंदा ही जाता है।”

“हाँ, मगर सचमुच सेतु बन सकें तो दोनों और से रौंदे जाने में भी सुख है, और रौंदे जाकर टूटकर प्रवाह में गिर पड़ने में भी सिद्धि। पर मैं तो कह रही हूँ कि मैं तो उतनी कल्पना भी नहीं कर पाती - मैं तो समझती हूँ, हम अधिक-से-अधिक इस प्रवाह में छोटे-छोटे द्वीप हैं, उस प्रवाह से घिरे हुए भी, उससे कटे हुए भी; भूमि से बँधे और स्थिर भी, पर प्रवाह में सर्वदा असहाय भी - न जाने कब प्रवाह की एक स्वैरिणी लहर आकर मिटा दे बहा ले जाये, फिर चाहे द्वीप का फूल-पत्ते का आच्छादन कितना ही सुन्दर क्यों न रहा हो!”

भुवन तनिक विस्मय से रेखा की ओर देखता रहा। उसके शब्दों में, उसकी वाणी में, चित्रों को उभार कर सामने रख देने की अद्भुत शक्ति थी। भुवन अपनी आँखों के सामने स्पष्ट देख सकता था - एक दिगन्तस्पर्शी प्रवाह, उसमें छोटे-छोटे द्वीप - मानो तैरते दीप - और एक बड़ी अँधेरी रवहीन तरंग - नहीं, नहीं! उसने अपने को सँभाल कर कहा, “रेखाजी, आप क्यों काफ़ी हाउस आती हैं?”

“मैं?” “मैं!” एक ही शब्द की दो प्रकार के स्वरों में आवृत्ति-बिना कुछ कहे भी रेखा कितना कुछ कह सकती थी। थोड़ी देर बाद उसने कहा, “मैं तो - आप मानिए! - काफ़ी पीने ही आती हूँ। थक कर आती हूँ, पर विश्राम के लिए नहीं, काफ़ी पीकर फिर चल पड़ने के लिए। जैसे इंजन ईंधन झोंकने या पानी लेने रुकता है या फिर साथ के लिए आती हूँ - कुछ लोगों से मिलने, बात करने - और यहाँ इसलिए कि यहाँ वे सहज भाव से मिलते हैं। और मानव और मानव का सहज भाव से साक्षात् - वही हमारा मानव जीवन से और मानवता के जीवन से एक मात्र सम्पर्क हो सकता है। नहीं तो मानवता - यानी हमारी कल्पना - एक विशाल मरु-भूमि है!”

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