लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा के इस पार पहुँचते ही भुवन ने बढ़कर नमस्कार करते हुए पूछा, “क्या काफ़ी हाउस चल कर बैठना अच्छा न रहेगा? आप मालूम होता है काफी देर से घूमती रही हैं-लाइए, एक-आध बण्डल मुझे दे दीजिए,” क्योंकि रेखा के हाथ में कई एक पुलिन्दे थे।

“धन्यवाद, मैं अपना बोझा ढोने की आदी हूँ।” कहते-कहते भी मुस्कराती रेखा ने दो-तीन पैकेट उसे दे दिये। “मैं उपहार देने के लिए कुछ चीज़ें खरीद रही थी; उपहार देना यों भी अच्छा लगता है और मैं तो इतना आतिथ्य पाती हूँ कि चाहिए भी। लेकिन आज काफ़ी हाउस का निमन्त्रण मेरा है।”

“निमन्त्रण तो - अगर आप न्याय करें तो - मेरा ही था।” भुवन ने हल्के प्रतिवाद के स्वर में कहा।

रेखा केवल हँस दी।

“काफ़ी हाउस का भी एक चस्का है,” रेखा ने कहा, “काफ़ी के चस्के से शायद ज्यादा गहरा वही है।”

“हाँ, चन्द्र को ही देखिए; अपने जीवन का छठा अंश वह यहाँ बिताता है या बिताना चाहता है- हालाँकि अच्छी और बुरी काफ़ी की पहचान भी शायद उसे नहीं है?”

“आपको कैसा लगता है?”

भुवन ने सीधे उत्तर न देकर कहा, “चन्द्र का विचार है कि जीवन से तटस्थ होकर दो मिनट बैठने के लिए ऐसी अच्छी जगह दूसरी नहीं - तटस्थ भी हों और देखते भी चलें, यह यहाँ का लाभ है।”

“पर आप तो ऐसा न मानते होंगे-आप तो यों ही इतने तटस्थ जान पड़ते हैं।” रेखा थोड़ा हँस दी-“कि दो मिनट की तटस्थता का आपके लिए क्या आकर्षण होगा!”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book