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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्रमाधव के पत्र में निराशा भी थी, और कुछ गर्व का भाव भी कि उसकी दुर्वाणी सच निकली। “यह संस्कृति का अन्तिम युद्ध है, क्योंकि जिसे हम संस्कृति कहते हैं वह एक सड़ा हुआ चौखटा है। और उसमें जो जीव बन्द है, वह जीव इसीलिए है, कि वह पशु है; अगर पशु न होकर तथा-कथित संस्कृत मानव होता तो वह भी मर गया होता। जैसे कि सर्वत्र संस्कृत मानव मर गया है। इस युद्ध में से एक नयी बर्बरता निकलेगी और सारी दुनिया पर राज्य करेगी, मैं कहता हूँ आने दो उस बर्बरता को। जिस तल पर हम हैं उस तल से ऊँचे की व्यवस्था स्वयं एक अभिशाप है क्योंकि उससे हमारा सम्पर्क हो ही नहीं सकता। डिमोक्रेसी धोखा है, गिनतियों का राज बनिये का राज है...।” आगे चलकर फिर उसने प्रश्न उठाया था, “क्या आप अब भी मानती हैं कि कलाओं का और संगीत का कोई आत्यन्तिक मूल्य है - इस जीवन में कोई स्थान है? है शायद-युद्ध के कार्यों को आगे बढ़ाने में वे सहायक हो सकती हैं...। कला यानी पोस्टर; संगीत यानी फौजी बैंड और साहित्य यानी पैम्फ़लेट, परचे, अख़बारनवीसी, रिपोर्ताज का नया माध्यम जो न पूरा तथ्य है न पूरी कल्पना - क्योंकि तथ्य और कल्पना का अन्तर उस परम्परा का अवशिष्ट है, जिसमें सनातन सत्य कुछ होता था और उसका शोध होता था; अब तथ्य ही तथ्य है, सत्य केवल तथ्य का वह रूप है जिसे आप हम देखते या जानते या भाँपते हैं - यानी तथ्य - हमारी कल्पना या हमारा पूर्वाग्रह...। सत्य अगर पूर्वाग्रह-युक्त तथ्य है, तो रिपोर्ताज श्रेष्ठ साहित्य है, सीधी बात है...। कैसी उथल-पुथल है, जो कुछ था, जैसे उसके नीचे से धरती खिसकी जा रही है, हमारे इस बेपेंदी के जगत को देखकर एक बार अट्टहास करने को जी होता है-हा-हा-हा-हा!”

गौरा ने पहले उत्तेजित होकर उत्तर लिखना चाहा, थोड़ा-सा लिखा था फिर फाड़ दिया। क्या उत्तर हो सकता है इसका?

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