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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


मध्ययुग में बुद्धि की महानिशा में वैज्ञानिक सन्तों ने ही ज्ञान के टिमटिमाते आलोक को अपनी गुदड़ी के भीतर छिपा कर उसकी रक्षा की...पर किसलिए? कि औद्योगिक क्रान्ति के साथ वह सुविधा का गुलाम बनकर एक के बाद एक विभ्राट् उत्पन्न करता चले? क्या यही मानव का भविष्य है क्योंकि यह उसकी श्रेष्ठ उपलब्धि विज्ञान का भविष्य है? वह यह नहीं मान सकता...। पर निस्सन्देह यह विज्ञान का सूक्ष्म-काल तो है ही; और उसके साथ नैतिकता का भी क्राइसिस है; संस्कृति का भी; क्योंकि विज्ञान का क्राइसिस वैज्ञानिक नैतिकता और वैज्ञानिक संस्कृति का भी क्राइसिस है। इससे यह सीखना होगा कि नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, या बिना चालक का इंजिन। वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में; और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है...। और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं, मानव का नहीं, मानव-पशु का संगठन ही उनका इष्ट है। कोई भी नीति-निरपेक्ष व्यवस्था अनिवार्यतः सर्वसत्तावादी व्यवस्था होगी, क्योंकि नीति को छोड़ देने के बाद दूसरा प्रतिमान सत्ता का रह जाता है...” मेरे लिए यही इस युद्ध का सबक है। यह युद्ध किसलिए लड़ा जा रहा है, सहसा नहीं कह दिया जा सकता, ठीक स्वाधीनता के लिए ही है, यह कह देना भोलापन होगा क्योंकि 'स्वाधीनता' के साथ कितने इतर स्वार्थ भी तो मिले हुए हैं; पर यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस युद्ध से आरम्भ करके हमें संस्कृति के उन मानों के लिए संघर्ष करना है जिनको स्वयं हमारी इस संस्कृति ने ही नष्ट कर दिया या जोखिम में डाल दिया। हमें केवल युद्ध नहीं जीतना है, हमें शान्ति भी नहीं जीतनी है, हमें संस्कृति जीतनी है, विज्ञान जीतना है, नीति जीतनी है, हमें मानव की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा जीतनी है। क्या इस युद्ध का सबक हमें वैसे वैज्ञानिक देगा जो विज्ञान को नीति से नहीं, नीति के लिए मुक्त रखेंगे? हमें आशा नहीं खोनी होगी...।”

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