लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


यही मैं मानता हूँ। स्वयं उस आदर्श को नहीं पाता, वह दूसरी बात है। पर वह ठीक है इसके बारे में मुझे ज़रा भी संशय नहीं है।

और अभी क्या लिखूँ? तुम क्या करती हो, क्या करोगी, लिखना। अब भी अगर बुलाओगी, तो आ जाऊँगा। यों छुट्टियों से तत्काल पहले छुट्टी मिलना कठिन होता है पर आना हो तो एकदम छुट्टियों में ही आने से काम न चलेगा?

तुम्हारा
भुवन दा


गौरा के दूसरे पत्र से भुवन ने जाना कि बात विवाह की ही थी। प्रस्तावित लड़का गौरा के कालेज में पढ़ता रहा था, उससे तीन-चार वर्ष आगे; उसके पिता की ओर से बात पहले उठायी गयी थी जब गौरा ने इण्टर पास किया था - लड़का तब विदेश में था। गौरा के माता-पिता ने तब इसी आधार पर टाल दिया था कि लड़का तो विदेश में है, पर माँ यही मानती थीं कि वे लगभग वचन-वद्ध हैं। लड़का जाड़ों में लौट आया था इंजीनियर बनकर, तब से बात चल रही थी और गौरा की परीक्षा के बाद ही प्रबल होकर उठी यों लड़के वाले राजी थे कि गौरा आगे भी पढ़ना चाहे तो पढ़े; पर पक्की बात वे तुरत चाहते थे, और विवाह भी इसी वर्ष नहीं तो अगले वर्ष। लड़के को गौरा ने देखा अवश्य था पर उसकी बहुत हल्की-सी स्मृति ही उसे थी, और यह कहने का कोई कारण नहीं था कि उनमें कोई विशेष अनुकूलता है। विवाह की बात लड़के की इच्छा पर ही उठी थी, पर एक बी.ए. के विद्यार्थी का एक फर्स्ट ईयर की लड़की के प्रति आकर्षण अपने-आपमें कोई महत्त्व नहीं रखता।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book