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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


पर यह बाहर की बात है। तुम्हारे भीतर? यहाँ कुछ कहते दोहरा संकोच होता है, फिर भी कुछ कहूँगा ही : हाँ, इसे तुम मेरा मत ही समझो, वह भी पूर्वग्रह-दूषित मत, उससे अधिक कुछ नहीं। आगे-पीछे इस प्रश्न का सामना करना ही होता है; और जहाँ तक निरे सिद्धान्त का प्रश्न है, मैं मानता हूँ कि जब तक कोई स्पष्टतया मनोवैज्ञानिक 'केस' न हो विवाह सहज धर्म है और है व्यक्ति की प्रगति और उत्तम अभिव्यक्ति की एक स्वाभाविक सीढ़ी। लेकिन सिद्धान्त के प्रतिपादन से ही प्रश्न का उत्तर नहीं हो जाता; व्यक्तित्व के प्रश्न के आगे व्यक्ति का जो प्रश्न है, वह बना रहता है। उसके विषय में यह कह सकता हूँ कि व्यक्ति का स्वतन्त्र विकास जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक उसे इकाई से बाहर प्रसृत करने का प्रश्न नहीं उठता, वह प्रश्न तभी उठना चाहिए जब उसके बिना और विकास के मार्ग न हों। और प्रश्न उठने के बाद फिर व्यक्ति-विशेष की खोज होती है : उसमें जोखिम अनिवार्य है; पर आन्तरिक आलोक कुछ भी काम नहीं देता यह कैसे माना जाये? जोखिम भी कौन-सा उठाने लायक है, कौन-सा नहीं, इसके निर्णय में अन्तःकरण का साक्ष्य अवश्य सहायक होता है। राह चलना हो, तो हर मोड़, हर चौराहे पर राही को जोखिम उठाना होता है और वह उठाता है; उस समय आँखें बन्द करके दूसरे के निर्देश पर अपने को नहीं छोड़ देता। और गार्हस्थ्य एक लम्बी यात्रा है-बल्कि पथयात्रा नहीं, सागर-यात्रा, जिसमें मोड़-चौराहे पर नहीं, क्षण-क्षण पर संकल्प-पूर्वक जोखिम का वरण करना होता है और कोई लीकें आँकी हुई नहीं मिलतीं, नक्शे और कम्पास और अन्ततोगत्वा अपनी बुद्धि और अपने साहस के सहारे चलना होता है।

तुम्हें जो राह दीखती है, उस पर चलो, गौरा। धैर्य के साथ, साहस के साथ। और हाँ, जो तुमसे सहमत नहीं हैं उनके प्रति उदारता के साथ, जो बाधक हैं उनके प्रति करुणा के साथ। और राह पर जब ऐसा साथी मिलेगा जिसका साथ तुम्हें प्रीतिकर, वांछनीय, कल्याणप्रद लगे, तब किसी की बात न सुनना, जान लेना कि अब स्वतन्त्र रूप से जोखिम वरने का समय आ गया।

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