ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
गौरा ने बी.ए. की परीक्षा दे दी थी, साथ ही संगीत की एक परीक्षा भी दी थी। भुवन ने उसे एक उत्साह-वर्द्धक पत्र लिखा था, और लिखा था, कि वह आशा करता है कि गौरा अच्छी तरह पास होगी क्योंकि वह चाहता है कि गौरा जो कुछ करे अच्छी तरह करे; पर साथ ही उसकी यह भी धारणा है कि गौरा में जो कलात्मक संवेदना है उसकी अभिव्यक्ति और निष्पत्ति बी.ए.-एम.ए. की डिगरियों में नहीं, रचनात्मक कर्म में है, अपनी प्रतिभा का उपयोग न करना, प्रस्फुटित होने का मार्ग न देना, उसे जीवनानन्द की शोध में न लगाना निष्क्रिय आत्म-हनन है, अन्धकार को आत्म-समर्पण है जबकि वह गौरा को हमेशा एक उजली और दौड़ती हुई धूप के रूप में ही देखता है : पहाड़ पर बदली में से फूटी हुई किरण जैसे धन-खेतों पर लहराती दौड़ती चली जाती है, वैसी ही।
उसके पत्र के उत्तर में देर हुई थी। जब आया था, तब जो आया था, उसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं था। उसमें उसके पत्र की किसी बात का कोई उल्लेख नहीं था; बहुत छोटे पत्र में उतना ही लिखा था :
भुवन दा,
आप क्या दो-चार दिन के लिए भी नहीं आ सकते! मुझे आगे मार्ग नहीं दीखता है, और मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती! जल्दी आइये।
गौरा
भुवन की समझ में कुछ भी न आया। उसे ध्यान आया, गौरा का परीक्षा-फल निकल गया होगा : गौरा ने लिखा क्यों नहीं? कहीं फेल तो नहीं हो गयी - पर असम्भव! उसने रजिस्ट्रार को जवाबी तार देकर परीक्षा-फल माँगा; उसी रात उत्तर आ गया : “प्रथम श्रेणी, दूसरा स्थान।” हाँ, यही हो सकता था, फ़ेल होने की कल्पना भी क्यों उसके मन में आयी? पर बात क्या है? गौरा को वह क्या उत्तर दे? क्या चला जाये? लेकिन क्यों - पहले जाने तो कि बात क्या है?
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