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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

3


मैत्री, सख्य, प्रेम - इनका विकास धीरे-धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं। 'प्रथम दर्शन से ही प्रेम' की सम्भावना स्वीकार कर लेने से भी इसमें कोई अन्तर नहीं आता पर धीरे-धीरे होता हुआ भी वह समगति से बढ़ने वाला विकास नहीं होता, सीढ़ियों की तरह बढ़ने वाली उसकी गति होती है, क्रमशः नये-नये उच्चतर स्तर पर पहुँचने वाली। कली का प्रस्फुटन उसकी ठीक उपमा नहीं है, जिसका क्रम-विकास हम अनुक्षण देख सकें : धीरे-धीरे रंग भरता है, पंखुड़ियाँ खिलती हैं, सौरभ संचित होता है और डोलती हवाएँ रूप को निखार देती जाती हैं। ठीक उपमा शायद साँझ का आकाश है : एक क्षण सूना, कि सहसा हम देखते हैं, अरे, वह तारा! और जब तक हम चौंक कर सोचें कि यह हमने क्षण भर पहले क्यों न देखा - क्या तब नहीं था? तब तक इधर-उधर, आगे, ऊपर कितने ही तारे खिल आयें, तारे ही नहीं, राशि-राशि नक्षत्र-मण्डल, धूमिल उल्का-कुल, मुक्त-प्रवाहिनी नभ-पयस्विनी - अरे, आकाश सूना कहाँ है, यह तो भरा हुआ है रहस्यों से जो हमारे आगे उद्घाटित हैं...प्यार भी ऐसा ही है; एक समोन्नत ढलान नहीं, परिचिति के, आध्यात्मिक संस्पर्श के नये-नये स्तरों का उन्मेष...उसकी गति तीव्र हो या मन्द, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वांछित हो या वांछातीत। आकाश चन्दोवा नहीं है कि चाहे तो तान दें, वह है तो है, और है तो तारों-भरा है, नहीं है तो शून्य, शून्य ही है जो सब-कुछ को धारण करता हुआ रिक्त बना रहता है...।

गौरा से भुवन का चौदह वर्ष का - या कि सात-आठ वर्ष का - परिचय भी ऐसा ही था। इसे लम्बे अन्तराल के बाद जो नया परिचय हुआ था, वह पहले परिचय से बिल्कुल भिन्न स्तर पर था; दूसरे स्तर पर वह सम गति से चल रहा था कि सहसा एक झोंके से वह एक स्तर और उठा - या गहरे में चला गया।

भुवन को कालेज की नौकरी करते एक वर्ष हुआ था। थीसिस भी उसने भेज दिया था, वर्ष-भर के अन्दर उसे परिणाम की सूचना मिलेगी और, जैसा कि उसे पूरा विश्वास है, अगर उसे डाक्टर की उपाधि मिल जाएगी तो कालेज में उन्नति तो होगी ही, आगे काम की सुविधा भी मिलेगी, शायद विश्वविद्यालय में भी कुछ कर सके। एक स्थिरता उसके मानसिक जीवन में आ गयी थी जो गतिहीनता नहीं थी, सधी हुई, निर्दिष्ट गति की सूचक थी।

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