लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

2


दूसरे दिन गौरा आयी तो चन्द्रमाधव मौजूद था। दोनों को नमस्कार करके गौरा ने कहा, “मास्टर साहब, मैंने नाटक पढ़ लिये, और भी दो-एक लड़कियों से सलाह कर ली। हम 'ध्रुवस्वामिनी' खेलेंगे, लेकिन....”

“लेकिन यह कि मुझे मेहनत करनी होगी; यही न?”

“हाँ।”

यहाँ पर चन्द्रमाधव ने कहा, “मेरी बात टाँग अड़ाना न समझी जाये, तो निवेदन करूँ कि मैंने 'ध्रुवस्वामिनी' पर कुछ नोट लिए हैं अगर वे कुछ काम आ सकें”

भुवन ने कुछ विस्मय से भँवें ऊँची की, लेकिन तुरत सँभल कर बोला, “गुड फ़ेलो! लाओ देखें।”

चन्द्रमाधव उठकर भीतर गया तो गौरा ने घने उलाहने से भरी आँखें भुवन पर टिका दीं, और एकटक उसे देखती रही। वह चितवन भुवन तक पहुँची, पर उसने जान-बूझ कर उसे न देख कर सम स्वर से कहा, “लो, तुम्हारा काम आसान हो गया।”

“मेरा क्या, आपका कहिए। आपने क्यों....”

वाक्य अधूरा रह गया। चन्द्रमाधव पुस्तक ले आया, भुवन ने पन्ने उलट-पलट कर देखे और कहा, “ठीक तो है।” फिर पुस्तक गौरा को दे दी। गौरा ने अनिच्छुक भाव से उसे लिया, इधर-उधर देखा; फिर मानो कर्त्तव्य का ध्यान कर सधे शब्दों में कहा, “आपके मित्र ने बहुत परिश्रम किया है, मैं उनकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।” फिर चन्द्रमाधव की ओर मुड़कर कहा, “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। बल्कि मास्टर साहब की ओर से भी, जिनका कष्ट बचाने के लिए आपको मेहनत करनी पड़ी।” कहते-कहते उसने कनखियों से भुवन की ओर देखा, कि यह चोट ठीक बैठी है कि नहीं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book