ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“यही तो बात है। रूसी दूर है। उनके लिखे को उलट-पलट लो, कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन अपने देश के लेखक का एक वाक्य इधर-उधर कर तो लो-जान को आ जाएँगे सब। हमारे यहाँ कोई नाटक थोड़े ही लिखता है? सब शास्त्र लिखा जाता है; सब लेखक ऋषि होते हैं-'आर्षवाक्यं प्रमाणम्', और तुम झख मारते रहो। शेक्सपियर भी स्टेज पर जाकर एक्टरों से सीख कर अपने डायलाग बदलता था, लेकिन यहाँ सब सीखे-सिखाये कोख से निकलते हैं।”
“तुम्हारी बात में सार है, मैं मानता हूँ। लेकिन दूसरा पक्ष भी कुछ हो सकता है। एडैप्ट करके अपने देश-काल में ले आना हमेशा ठीक नहीं होता; खुद भी दूसरे देश-काल में जा सकना चाहिए। अगर आज 'शाकुन्तल' ज्यों का त्यों स्वाभाविक नहीं, तो ज़रूरी नहीं है कि शकुन्तला को ड्राइंगरूम हिरोइन बनाया जाये; हमीं क्यों न कण्व के आश्रम में जा सकें? ग्रीक नाटक तक तो हम चले जाते हैं।”
“वह दूसरी बात है। लेकिन हमारे देश में न स्टेज हैं, न एक्टर हैं, न नाटक हैं, फिर नाटक-लेखक ऐंठे किस बात पर रहते हैं? सब कुछ हमीं को सीखना है, उन्हें कुछ नहीं सीखना है?”
“ऐंठ का जवाब ऐंठ हो भी सकता है, पर उससे स्थिति नहीं बदलती। हिन्दी नाटक लेकर कुछ करके दिखाओगे, तभी तो आगे कुछ होगा; नहीं तो आगे भी यही स्थिति रहेगी-न स्टेज, न एक्टर, न नाटक।”
“हाँ, तो मेरी ओर से रहे। खुदाई खिदमतगारी का शौक तुम्हें है, तुम करो। मैं तो दुनिया को जैसी है वैसी लेकर चलता हूँ।”
भुवन ने कहा, “तो जाने दो।” बात समाप्त हो गयी।
लेकिन शाम को चन्द्रमाधव घूमने गया, तो दोनों नाटक लेता आया। रात में पढ़ डाले, फिर पेंसिल लेकर बहुत से निशान लगाये, हाशिये में नोट लिखे, क्या अंश छोड़ा जा सकता है, क्या हेर-फेर हो सकता है, वाचिक में क्या परिवर्तन अपेक्षित है, इत्यादि। बीच-बीच में शब्दों पर वह झल्लाता, फिर रेखांकित करके हाशिये में दूसरे शब्द या पद लिख देता जिनसे वार्तालाप अधिक सहज और स्वाभाविक बन सके।
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