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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


खिड़की के आगे खड़े होकर बाँस की टट्टी को उसने पूरा हटा दिया। ढलती रोशनी में उसने देखा, उसके सहयोगी आ रहे हैं। उनकी चाल देख कर अपने प्रश्न का उत्तर उसने जान लिया : कोई चिन्ता की बात नहीं है।

फिर वह पूर्ववत् टहलने लगा।

थोड़ी देर में उसके साथी वहाँ पहुँच जाएँगे; यह जो अप्रत्याशित एकान्त उसे मिला, उसका अन्त हो जाएगा। और कल के - कल क्यों, अभी थोड़ी देर बाद के बारे में अनिश्चय ने जो मुक्ति उसे दे दी थी, उसका भी अन्त हो जाएगा। यों जीवन में किस बात का भरोसा है, पर तत्काल यह मानने का कोई कारण नहीं रहेगा कि कल का भरोसा नहीं है - कि कल का सूर्योदय देखने की आशा रखना मूर्खता है।

भुवन ने अनुद्विग्न भाव से चिट्ठी के पन्ने समेटे, उनके कोने और सिरे बराबर-बराबर मिलाये, और फिर सहसा उन्हें फाड़ डाला। फाड़ कर स्टोव के पास की एक काली ट्रे में रख दिया जहाँ प्रायः ही वह और उसके साथी जलाने से पहले अपने कागज़ रखा करते हैं - अभी वह उन्हें जला देगा।

कल - अब तो यह मान लिया जा सकता है कि कल होगा! - वह गौरा को अपने कुशल-समाचार का और पत्र लिख देगा। उससे अधिक कुछ लिखना क्यों आवश्यक है? दो महीने के अन्दर उसने अगर जान लिया है कि हाँ, वह गौरा से यह प्रश्न पूछेगा, प्रश्न पूछने के और उसका उत्तर पाने के लिए अपने को तैयार कर लिया है, तो उतना ही यथेष्ट है। उससे आगे - जब समय आएगा तो प्रश्न का पूछा जाना भी अपने आप हो जाएगा - उत्तर भी अपने आप मिल जाएगा! तब तक-गहरी अनुभूतियाँ संचयधर्मा ही होती हैं; उनके आन्तरिक दबाव का संचय इतिहासों को बदल देता है, इतिहास के मलबे को साफ कर देता है - नयी नींवें खोद देता, ईंटें पका देता है...।

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