ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन उठकर टहलने लगा। सब कुछ अधूरा है, और ज्यों-ज्यों वह आगे पूरेपन की ओर बढ़ता है, नयी अपूर्णताएँ भी उसके आगे स्पष्ट हो जाती हैं...। कितना बड़ा है जीवन, कितना विस्तृत, कितना गहरा, कितना प्रवहमान; और उसमें व्यक्ति की ये छोटी-छोटी इकाइयाँ-प्रवाह से अलग जो कोई अस्तित्व नहीं रखतीं, कोई अर्थ नहीं रखतीं, फिर भी सम्पूर्ण हैं, स्वायत्त हैं, अद्वितीय हैं, और स्वतःप्रमाण हैं, क्योंकि अन्ततोगत्वा आत्मानुशासित हैं, अपने आगे उत्तरदायी हैं; स्वर्ग और नरक, पुण्य और पाप, दण्ड और पुरस्कार, शान्ति और तुष्टि, ये सब बाहर हैं तो केवल समय हैं, सत्य तभी हैं जब भीतर से उद्भूत हों...।
वह फिर लिखने बैठ गया :
“वह रूपक मेरा नहीं है, पर बार-बार मुझे याद आता है और मैं पाता हूँ कि उस में नया अभिप्राय है : हम सब नदी के द्वीप हैं, द्वीप से द्वीप तक सेतु हैं। सेतु दोनों ओर से पैरों के नीचे रौंदा जाता है, फिर भी वह दोनों को मिलाता है, एक करता है...। गौरा, मैं तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाता हूँ - अनुरोध के हाथ; क्या तुम भी अपने हाथ मेरी ओर बढ़ाओगी - वरद हाथ; कि इस प्रकार हम एक सेतु बन सकें जिस पर ईश्वर अगर है तो उसका आसन है?”
वह फिर उठकर टहलने लगा। उस बँगला गीत के बोल उसके मन में गूँज गये जो उसने कुछ दिन पहले वहीं सुना - 'तोमार-आमार एइ विरहेर अन्तराल कत आर सेतु बांधि सुरे-सुरे ताल-ताल?' पहले वह पत्र की ओर बढ़ा कि यह भी गौरा को लिख दे, लेकिन पत्र पर झुककर उसे लगा कि नहीं, पत्र इसके बिना ही सम्पूर्ण है; और वह फिर चक्कर काटने लगा। फिर एक चक्कर उसने यन्त्रों की ओर लगाया। सहसा उसका ध्यान केन्द्रित हो आया; थोड़ी देर बाद उसने दूर विमानों की घरघराहट सुनी - एक-साथ कई विमानों की - और विमान-भंजकों की पटापट...यह क्या है? आक्रमण कि प्रत्याक्रमण? अभी थोड़ी देर में वह क्या कर रहा होगा - यन्त्रों की सँभाल या कि विस्फोटकों की? अभी उसे खबर मिलेगी - फ़ोन से या रेडियो से।
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