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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

12


“गौरा, आज फिर मैं तुम्हारा अतिथि होकर तुम्हारे कमरे में बैठा हूँ।”

“ऐसा क्यों कहते हो, भुवन?” गौरा ने उसकी बात का अभिप्राय न समझते हुए कुछ आहत स्वर में कहा।

“मुझे याद आता है मसूरी का वह पहला दिन - वह रात जो चलते-चलते बड़ा दिन हो गयी थी - तब भी तो तुम्हारा मेहमान होकर बैठा था।”

“वह तो तुम्हारा कमरा था - मेहमान-कमरा ही था वह। मेरे कमरे में तो - मेरे कमरे में तुम कब आये थे तुम्हें याद है?”

भुवन ने उठकर एक कोने की ओर बढ़ते हुए कहा, “ख़ूब याद है - नये वर्ष के दिन मैं तुम्हारा कमरा सजाने लगा था।” उसने तिपाई पर रखे फूलदान से एक फूल निकाल लिया था, उसे लिए हुए गौरा की ओर मुड़ते हुए बोला, “और मेरे हाथ से एक फूल तुम्हारे ऊपर गिर गया था।” कहते-कहते उसने वह फूल गौरा के कबरी-बन्ध में अटका दिया।

“ऐसे नहीं गिरा था, ऐसे गिरा था।” कहते-कहते गौरा उसके पैरों की ओर झुक गयी। “मेरा प्रणाम लो, शिशु!”

भुवन ने जल्दी से झुककर उसके दोनों हाथ पकड़े और उसे खींचकर उठा लिया, हाथ छोड़े नहीं और एक-टक उसे देखता रहा।

देर बाद उसने धीरे-धीरे कहा, “गौरा, अब मैं फिर जल्दी ही चला जाऊँगा - पर अब भागूँगा नहीं। और...” कहते-कहते वह एक घुटने पर झुका, “प्रणाम मुझे करना चाहिए, क्योंकि तुम...”

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