ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पर मुझे आकाश प्यारा है ...”
कापी गौरा पढ़ चुकी थी। उसके वाक्य आगे-पीछे उसके अन्तःक्षितिज से उठते और विलीन होते जाते थे। क्या भुवन का यह कहना ठीक है कि जो है, यही जीवन है, आगे कुछ नहीं है, परलोक नहीं है, पुनर्जन्म नहीं है? वह मान सकती है कि पुनर्जन्म नहीं है, परलोक भी नहीं है - इस जीवन का कर्म-फल भोगने के लिए पुनः जन्म लेने की कोई आवश्यकता उसे नहीं दीखती क्योंकि भोग सब इसी जीवन में भुगता दिये जाते हैं, देना-पावना सब राई-रत्ती यहीं चुक जाता है ऐसा वह मान ले सकती है। पर क्या यह जीवन ही सब कुछ है - यह हमारा हमारी चेतना की मर्यादाओं से मर्यादित देशकाल से बँधा जीवन? क्या हम एक के बाद एक नहीं, एक साथ ही एकाधिक जीवन नहीं जीते, एकाधिक लोकों में नहीं रहते - हाँ, एकाधिक चेतना द्वारा उसके या उनके प्रभावों को ग्रहण नहीं करते? सदा न करते रहते सही, जीवन-शक्ति की उत्तेजना के क्षणों में ही सही; पर कभी भी अगर हम दूसरे स्तर पर, दूसरे लोक में दूसरे जीवन में प्रविष्ट हो सकते हैं, तो वह है... वही। अभी गौरा भी है, भुवन भी है, आज की गौरा भी है, पुरानी भी, आज का भुवन भी है, पुराना भी, कापी पढ़नेवाली भी है, लिखनेवाला भी, लिखने वाले की अनुभूति के कई स्तर भी, कई काल भी - और सब परात्पर नहीं, सब एक साथ, एक क्षण में...।
और नहीं, वह कहीं पृष्ठभूमि में रेखा भी है, रेखा की व्यथा भी और विशालता भी, अकिंचनता भी और दानशीलता भी - वह व्यक्ति का जीवन नहीं, निरपेक्ष जीवन है, सर्वस्पर्शी, सर्वत्र स्पन्दित...।
वह उत्तेजित होकर खड़ी हो गयी। कापी उसकी गोद से फिसल कर गिरी, उसके शब्द ने उसे चौंका दिया। गौरा ने आगे बढ़कर बत्ती जलायी, और रेखा को तार लिखने लगी कि भुवन वहाँ है, ठीक है, कि उसे बाहर निकलने की इजाज़त भी मिल रही है कल से।
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