ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“नियमित आती हो, ऐसा तो नहीं, हाँ, बन्द नहीं हुई। पिछले महीने आयी थी। एक बम्बई से। आप क्यों नहीं उन्हें एक चिट्ठी लिख देते-यहीं से?” तनिक रुककर वह फिर बोली, “सुना है, वह फिर शादी कर रहे हैं।”
“अच्छा?”
फिर थोड़ी देर मौन रहा, दोनों सूनी रात को देखते रहे। लोग एक ही आकाश को, एक ही बादल को, एक ही टिमकते तारे को देखते हैं, और उनके विचार बिलकुल अलग लीकों पर चलते जाते हैं, पर ऐसा भी होता है कि वे लीकें समान्तर हों, और कभी ऐसा भी होता है कि थोड़ी देर के लिए वे मिलकर एक हो जायें; एक विचार, एक स्पन्दन जिस में साझेपन की अनुभूति भी मिली हो। असम्भव यह नहीं है, और यह भी आवश्यक नहीं है कि जब ऐसा हो तो उसे अचरज मान कर स्पष्ट किया ही जाये, प्रचारित किया ही जाये - यह भी हो सकता हैं कि वह स्पन्दन फिर द्विभाजित हो जाये, विचार फिर समान्तर लीकें पकड़ लें...।
गौरा ने कहा, “यह बड़ा दिन है, भुवन दा। 'आल पीस आन अर्थ, गुडविल टु मेन।' सोचती हूँ, तो ख्याल आता है कि कितनी सुन्दर भावना है यह और लगता है कि सचमुच इसे कोई सम्पूर्णतया अनुभव कर सके तो शिशु ईशा के साथ उसका भी नया जन्म हो जाता होगा।”
भुवन ने सोचते हुए-से कहा, “बिना पीड़ा के जन्म नहीं होता, गौरा-देव-शिशु का भी नहीं। शान्ति की भावना से शान्ति नहीं मिलती।”
“मैं कब कहती हूँ? बल्कि बिना पीड़ा के यह व्यापक कल्याण-भावना भी तो नहीं जागती-'आल पीस आन अर्थ' कह ही वह सकता है जो पीड़ा से गुज़रा है, नहीं तो इस भावना के ही कोई अर्थ नहीं होते।”
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