लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कुछ विस्मित स्वर से कहा, “मैं कलकत्ते मिलता आया हूँ।”

तीन बजे के लगभग गौरा अपने कमरे में चली गयी।

रेखा से भेंट की बात बताते हुए भुवन खड़ा हो गया था, फिर धीरे-धीरे न जाने कैसे दोनों खिड़की के पास जा खड़े हुए थे। भुवन रेखा की बात कहकर चुप हो गया; फिर थोड़ी देर बाद उसने हठात् पूछा, “गौरा, तुम रेखा से कब मिली थी, यह तो तुमने बताया नहीं?”

“वह मिलने आयी थीं - पिछली गर्मियों में।” कुछ रुककर, “तुलियन से लौटने के बाद। चन्द्रमाधव जी मिलाने लाये थे।”

“ओह।” कहकर भुवन चुप हो गया। आगे कुछ पूछने का उसका मन नहीं हुआ।

“आप चन्द्रमाधव जी से नाराज़ हैं, भुवन दा?”

भुवन सहसा कुछ नहीं बोला, बाहर रात की ओर देखता रहा।

“क्यों नाराज़ हैं, भुवन दा? वह आपके मित्र रहे।”

“मित्र!” भुवन ने कड़ुवे स्वर से कहा। फिर, जैसे इस प्रसंग को यहीं छोड़ देना चाहिए, वह चुप लगा गया।

गौरा ने उसके बात काटने की उपेक्षा करते हुए अपना वाक्य पूरा किया, “और-इतने बड़े भी नहीं हैं कि आप उनके ऊपर गुस्से का भार ढोते चलें - छोड़िए गुस्सा!”

भुवन थोड़ा-सा मुस्करा दिया। फिर धीरे-धीरे बोला, “तुम ठीक कहती हो-उस पर गुस्सा व्यर्थ है। और अब है भी नहीं। पर मैंने चिट्ठी-पत्री बन्द कर दी थी”- फिर सहसा नये विचार से, “तुम्हें उसकी चिट्ठी-विट्ठी आती है? कहाँ है?”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book