ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने हाथ बढ़ा कर उसका हाथ सहारे के लिए पकड़ कर उठते हुए कहा, “और तुम्हें तो और भी अधिक सलाह करनी थी।”
गौरा हँस पड़ी। “चलिए, मसूरी चलकर सलाह ही सलाह होगी - अभी थोड़ी देर में आप तो बुज़ुर्ग हो जाएँगे - बुज़ुर्गी आने से पहले – मैं थोड़ी देर चुप-चाप आपके पास बैठना चाहती थी।”
भुवन ने मुस्करा कर कहा, “बुज़ुर्गी तो गयी गौरा, सदा के लिए।” फिर सहसा गम्भीर होकर, “लेकिन हम सीधे तुरत मसूरी नहीं गये - इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझे डर था।”
“क्या डर था?”
“कि कहीं-कहीं हम अजनबी न हों - कहीं मुझे बेयरिंग्स न खोजनी पड़ें”
गौरा ने उमड़ कर हाथ उसकी ओर बढ़ाया और कुछ घनी आवाज़ में कहा, “भुवन दा?” फिर तुरत संयत होती हुई बोली, “तो आप साल-भर से कम में इतने साहब हो गये कि देश की बेयरिंग्स भूल गये? और जावा तो ऐसा साहब भी नहीं है-”
भुवन हँस दिया।
धीरे-धीरे वे लौटे थे और अगली सर्विस उन्होंने पकड़ ली थी। रास्ते में फिर बहुत कम बात हुई थी, गौरा सुकेत का नक्शा उसे समझाती रही थी, बस। बीच-बीच में भुवन उसकी ओर देखता था; वह मुस्करा देती थी और वह भी मुस्करा देता था। किनक्रेग उतर कर वे पैदल चढ़ाई चढ़ने लगे तो बात हो ही नहीं सकती थी; बँगले पर पहुँचकर गेट के भीतर घुसकर गौरा दौड़ती हुई छोटे रास्ते से ऊपर चढ़ गयी थी पुकारती हुई कि “पापा, पापा, भुवन दा आ गये!” भुवन जब तक गेट से प्रविष्ट होकर भीतर पहुँचे, तब तक पापा बाहर आकर सामने की सीढ़ी से उतरने लगे थे, सीढ़ी के नीचे ही दोनों की भेंट हुई थी। गौरा कहीं अदृश्य हो गयी थी, और फिर लगभग घंटे भर बाद तक नज़र नहीं आयी थी; आयी थी तो सूचना देने कि चाय तैयार है। पिता ने पूछा था, “बेटी, चाय ही है कि कुछ खाने को भी?” और मुड़कर भुवन से, “खाना खाकर चले थे?”
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