ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने बिना कुछ कहे मान लिया था। मान ही नहीं लिया था, मानो उस क्षण से बागडोर गौरा को सौंप दी थी कि जैसा वह कहेगी वैसा ही चलता जाएगा। केवल जब मुँह-हाथ धोकर वह निकला था और गौरा ने पूछा था, “नाश्ता करेंगे?” तो उसने पहले पूछा था, “तुम्हारा क्या हुक्म है?” लेकिन फिर गौरा के कुछ कहने से पहले ही कहा था, “नहीं, चलो स्टेशन से बाहर निकलें।”
ताँगा लेकर वे मैदान तक गये थे, वहाँ से पैदल टहलते हुए डालनवाला की ओर निकलकर रिसपना के किनारे पहुँच गये थे; नीचे सूखी नदी के पाट में उतर कर पत्थरों में वे चलते रहे थे; फिर एक ऊँचे कगारे पर एक पेड़ देखकर उसके नीचे बैठ गये थे। चलते हुए दोनों बहुत थोड़ा बोले थे; गौरा ने छोटे-छोटे प्रश्न पूछे थे-कब चले, कैसे आये, कहाँ कितना ठहरे, यात्रा कैसे हुई, इत्यादि-और भुवन ने वैसे ही छोटे-छोटे जवाब दे दिये थे; पर बैठकर दोनों बिलकुल ही चुप हो गये। भुवन सामने पड़े हुए कंकड़ों में से एक-एक उठाकर निरुद्देश्य-सा नीचे फेंकने लगा; गौरा देखती रही। थोड़ी देर बाद वह भी यन्त्रवत् एक-एक कंकड़ उठाकर भुवन को देने लगी; भुवन अन्यमनस्क-सा कंकड़ ले लेता और मानो पहले फेंके हुए पत्थर का निशाना बाँधता हुआ-सा फेंक देता। इस प्रकार एक-एक कंकड़ से समय का एक-एक अन्तराल लाँघते हुए वे काल की या अस्तित्व की ही किसी अज्ञात दिशा में बढ़ते रहे।
सहसा गौरा ने कहा, “चलें अब।”
इतनी देर तक नीरवता अलक्षित थी, अब इन शब्दों से वह मानो दोनों की चेतना में घनी उभर आयी। भुवन ने कहा, “गौरा, तुम्हें कुछ कहना नहीं है?”
“और तुम्हें?” सहसा गौरा कह गयी। फिर कुछ सकपका कर सँभलती हुई, “आप ने तो लिखा था बहुत कुछ बताना है - सलाह करनी है।” वह खड़ी हो गयी।
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